पथरीला सोना : प्रवासी भारतीयों के इतिहास बोध और पीड़ाबोध का आख्यान
जो देश अपने सीने पर पत्थरों का बोझ उगाये निस्पंद पड़ा हुआ था ,भारतीयों ने कुदाल से स्पंदित किया और इसके माथे पर लिखा तुम्हें उर्वर होना है ।
पथरीला सोना वास्तव में वह इतिहास है, जिसे
भारतीय मजदूरों ने भोगा और नए जीवन की आधारशिला रखी । उपन्यास की यात्रा आरम्भ
होती है भारत से निकले मजदूरों के प्रवास के आरम्भ से ,जो एक अंतहीन यात्रा में
परिवर्तित हो जाती है । पीड़ा,वेदना,आक्रोश और बेबसी का घनीभूत रूप इस उपन्यास में
देखने को मिलता है । इस उपन्यास को पढ़ते हुए हम उस यथार्थ से साक्षात्कार कर रहे
होते हैं ,जिसे प्रवासी भारतीयों ने भोगा था । इस विषय को लेकर लिखा जाने वाला यह
अद्वितीय उपन्यास है , जिसका लेखक स्वयं भोक्ता भी था । उपन्यास की आरम्भिक पंक्तियों
में उस मर्म को हम समझ सकते हैं – दर्द से परेशान उस औरत का पेट देखने की आवाज़ हाँकने वाले
जहाज के उस कर्मचारी ने जाल ऐसा बनाया कि औरत पेट न दिखाती तो उसे समुद्र में अब
तो फेकना ही होगा ।
औरत ने लहंगा उठा कर अपना पेट दिखाया ! सारी
औरतें चीख पड़ीं ।
रवीचन नाम के युवा ने कहा –औरत ने पेट दिखा दिया
।
अब तुम्हरा कलेजा ठंडा हुआ तो होगा ।
अधिकारी कुछ न बोलकर पीछे हट गया । उसे हटना ही
पड़ता ।
अब लोग खौल रहे थे ।
यहाँ संवेदनहीनता और पीड़ा का वह स्तर देखने को
मिलता जहाँ मनुष्यता का अंतिम छोर होगा । बाद में उस युवक को सजा भी मिली और जहाज
के मारिसस पहुचने पर पर उसे कोई देखा नहीं । इस उपन्यास में औपनिवेशिक शासन के
जुल्म की पराकाष्ठा की गवाही करने वाले प्रसंग देखने को मिलते हैं । लेखक ने लिखा
है कि – जहाज के अधिकारियों में मानवता मृत थी और इन भारतीयों के खेमें में
मानवता बेबस थी । मानवता का मृत होने और बेबस होने के बीच यह कथा आरम्भ होती है,
और एक सहज , सबल मानवीय समाज की स्थापना की आकांक्षा के साथ इस उपन्यास की कथा का
विकास होता है । उपन्यास की भूमिका में धुरंधर जी उस रिपोर्ट का भी
उल्लेख करतें हैं ,जिसमें मारिसस में बसे जर्मन आदोल्फ़ दे प्लेवित्स ने लिखा है कि
– शक्कर प्रतिष्ठानों में भारतीय मूल के लोगों की जानें ली जातीं हैं । बहु-बेटियों
पर कहर टूटते हैं ।भीषण मजदूरी के बदले मजदूरों के थैले में गोदाम से सडा अन्न
डालकर उन्हें घर लौटाया जाता है ।
यह उपन्यास वास्तव में उस वेदना का संचित रूप है
जो प्रवासी भारतीयों के प्रति उस समाज में थी ही नहीं, जो तथाकथित सभ्य कहा और
समझा जाता था । पथरीला सोना उपन्यास अगर लिखा नहीं जाता तो उस पीड़ा को शायद ही
जमाना जान पाता जिसे हमारे प्रवासी भारतीयों ने भोग कर एक नया सूर्योदय किया ।
लेखक का समर्पण भी अपने आप में विशिष्ट है ,उपन्यास की भूमिका में धुरंधर जी लिखते
हैं – इस उपन्यास को थामने और इसके संवहन में मैं इतिहास के उन वट-वृक्षी लोगों
का ऋणी हूँ , जो मृत्यु के उपरान्त आकाश में कहीं भी होंगे ,मैंने माँरिशस की धरती
से इस बात के लिए उनका जब आह्वान कि तुम्हें लेकर इतने विस्तार से लिखना चाहता हूँ
, तो उन्होंने लिखने का हौसला बढाया । विरले ही लेखक होंगे जो इतिहास के प्रति
इतनी रूचि और लोगों के प्रति इतना भाव रखते होंगे कि उन्हें ना होने के बाद भी
,उनके होने के अहसास से लिखते होंगे । धुरंधर जी उस गाथा को प्रस्तुत किया है ,
जिसने पुर्तगाली ,डच, फ्रांसीसी और अंग्रेजी शासन के जुल्म को सहते हुए एक नया
सूर्योदय किया ।
भाव,भाषा की दृष्टि से उपन्यास विशिष्ट है ।
इसमें हिन्दी के साथ-साथ भोजपुरिया टोन भी देखने को मिलता है । विस्तृत औपन्यासिक
फलक और इतिहास होने के कारण शिल्प के स्तर पर थोड़ी शिथिलता देखने को मिलती जो
उपन्यास के व्यापकता और इतिहास बोध को दृष्टिगत रखते हुए सर्वथा उचित और प्रासंगिक
है ।
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