पथरीला सोना (पहले कुदाल ,फिर कलम )

 

प्रवासी जीवन का संघर्ष एवं संवेदना : पथरीला सोना

रामदेव धुरंधर जीवन जगत की वास्तविकताओं को यथातथ्य प्रस्तुत वाले विशिष्ट रचनाकार हैं भारतीय सांस्कृतिक परम्परा के संवाहक के रूप में प्रवासी भारतीयों के योगदान को भूलाना संभव नहीं है।इसी परम्परा में रामदेव धुरंधर जी ने अपने लेखन के माध्यम से प्रवासी जीवन के यथार्थ और संघर्षों को बखूबी अपने कथा फलक पर उभारा है।आपका रचना संसार व्यापक और विस्तृत है । आपकी प्रकाशित कृतियाँ हैं – उपन्यास – चेहरों वाला आदमी,छोटी मछली –बड़ी मछली, बनते बिगड़ते रिश्ते, विराट गली के बासिंदे, पथरीला सोना । कहानी संग्रह – विष-मंथन, जन्म एक भूल लघुकथा संग्रह – चेहरे मेरे तुम्हारे ,यात्रा साथ-साथ , एक धरती एक आकाश , आते जाते लोग , मैं और मेरी लघुकथाएं । व्यंग्य संग्रह – कल्जुगी करम-धरम , बंदे आगे भी देख , चेहरों के झमेले , पापी स्वर्ग ।



इसके अतिरिक्त आपके लेख एवं रचनायें वैश्विक स्त्तर की पत्र-पत्रिकाओं में भी प्रकाशित होते रहे हैं । पथरीला सोना आपके द्वारा रचित विशिष्ट उपन्यास है , जिसमें प्रवासी मजदूरों की संघर्ष गाथा को बहुत ही तल्ख़ रूप में उभारा गया है । गहन और दीर्घ रात के अँधेरे से उभरती जीवन की स्थितियों का अंकन इस उपन्यास की विशेषता है । संवेदना ,पीड़ा , करुणा , के गहनतर स्तरों को जीने और उस अनुभूति को संजोने की दृष्टि से यह कृत्ति अन्यतम है । 180 वर्षों के परिवर्तन को समग्रता में प्रस्तुत करना कठिन रचनाधर्म था , जिसे रामदेव धुरंधर जी ने बखूबी निभाया है ।बिना अपने स्वास्थ्य की परवाह किये आपने 180 वर्षों की यात्रा को संजोना अपने आप में विशिष्ट है । आपने पथरीला सोना की भूमिका में लिखा है – मेरी पत्नी देवरानी पथरीला सोना उपन्यास मेरे लेखन की एक खास गवाह है । उसका सहयोग मुझे न मिलता तो शायद मैं अपने मारिसस के 180 वर्षों की साहित्यिक यात्रा में अपने को इतनी व्यापकता से समर्पित ना कर पाता । रात को वह जब भी जगी तो मुझे लिखते ही देखा । मेरे स्वास्थ्य को लेकर उसे बहुत चिन्ता हो गई थी । मैं अपनी पत्नी के कटघरे को स्वीकार करता हूँ , इस कृति में बार-बार ,वर्षों आद्यंत लगकर मैंने अपने स्वास्थ्य का बहुत क्षय किया है । वह हर हाल में चाहती थीं कि मैं इससे मुक्त होऊं , पर मैं जानता हूँ न तब भी मेरी मुक्ति थी , और न आज मेरी मुक्ति है  

अपनी रचना धर्मिता के प्रति इतनी प्रतिबद्धता विरले ही देखने को मिलती है । रचना धर्मिता के प्रति अपनी इसी सजगता और समपर्ण के कारण आपका यह उपन्यास इतना विशिष्ट बन पड़ा है


क्रमशः ........................................

 

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