आधा गाँव की भाषा एवं संवेदना

आधा गाँव की कथा को अपने पूरे मित्र को समर्पित करना अपने आप में अधिक व्यंजनापूर्ण है इस उपन्यास की कथा को कहने के लिए उपन्यासकार ने एक नये तरह की भाषा को हमारे समक्ष प्रस्तुत किया है , इसके साथ-साथ कथा शिल्प के स्तर पर नयापन लाने का कार्य किया है । कथा भाषा और कथा शिल्प को किसी निश्चित ढाँचे में बांधकर नहीं देखा जा सकता है ।कथा भाषा और सामाजिक सरोकारों को रेखांकित करते हुए प्रो. केशरी कुमार ने लिखा है कि - "भाषा यथार्थ का सबसे महत्वपूर्ण रचनात्मक पहलू है ।भाषा नहीं तो यथार्थ नहीं ,भाषा के द्वारा ही हम यथार्थ को जानते मानते पहचानते हैं ।भाषा यथार्थ को एक नाम देती है और इस नाम से ही वह पहचाना जाता है । जिसके पास वस्तु है ,पर नाम नहीं है । भाषा की उपेक्षा यथार्थ की उपेक्षा है ।यथार्थ समाज-जीवन का द्वार है, तो भाषा उससे भीतर बाहर करने का रास्ता है । एक के बिना दूसरे का अर्थ नहीं ।" 

कथा भाषा और सामाजिक यथार्थ का अन्योन्याश्रित संबंध है । कथा भाषा की दृष्टि अंचल के यथार्थ को अभिव्यक्त करने वाले उपन्यासों में नए प्रयोग देखने को मिलते हैं ।आधा गाँव में भी नए भाषिक एवं सांस्कृतिक प्रयोग देखने को मिलते हैं । अपनी भाषा और संस्कृति के प्रति अनुराग सहज मानवीय गुण है । भाषा और अपनी माटी के प्रति अनुराग के कारण ही इस उपन्यास की भाषा विशिष्ट बन पड़ी है । भाषा के सन्दर्भ में राही मासूम रजा के विचार को इस उपन्यास के पात्रों की भाषा संबंधी विचार से हम समझ सकते हैं - "मगर हम लोग आज भी वही जबान बोलते हैं , जो जबान अम्माँ बोला करतीं थीं , और जो जबान मत्तो बुआ ,ईदू और रऊफ़ की थी , और जो जबान गंगौली के मीर साहेबान की है – यानि भोजपुरी उर्दू । मेरी छोटी बहन अफ़सरी बारह-पन्द्रह बरस से दिल्ली में रह रही है ,मगर अब तक उसे उर्दू बोलना नहीं आ सका है । वह आज भी वही अम्माँ के दूध के साथ पी हुई भोजपुरी उर्दू बोलती है ।"   

भोजपुरी उर्दू को को माँ के दूध के समान कहना और अफ़सरी के बारह-पन्द्रह वर्ष तक रहने के बाद भी भोजपुरी उर्दू ही बोलना हमारे मन पर मातृभाषा के प्रभाव को द्योतित करता है , यह अपने आप में विशिष्ट है । मातृभाषा के संबंध में महात्मा गांधी का भी यही विचार था । अपने द्वारा संपादित स्वराज पत्र में महात्मा गाँधी ने लिखा है कि - "बच्चों के मानसिक विकास के लिए मातृभाषा उतनी ही आवश्यक है , जितना शारीरिक विकास के लिए माँ का दूध ।" ( स्वराज- 1909)

मातृभाषा और मातृभूमि के प्रति राही मसूम रजा का अनुराग देखते ही बनता है । आधा गाँव की पूरी कथा को जस का तस प्रस्तुत करने में अपनी माटी और भाषा के प्रति अनुराग ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है ।भाषा के साथ-साथ एक पूरी सांस्कृतिक – सामाजिक यात्रा तय होती है । आधा गाँव की कथा यात्रा में भी सामाजिक-सांस्कृतिक यात्रा निर्बाध गति से प्रवाहित होती रही है । कथाकार ने आधा गाँव की कथा को उसके पूरे वजूद के साथ बड़े ही मनोयोग से प्रस्तुत किया है । राही मासूम रजा जी एक सफल किस्सागो हैं । शब्दों और भावों की सहयात्रा के भागीदार के रूप में रजा जी को जानते –समझते हैं । समय के साथ प्राकृतिक तत्वों को जोड़ना और उन्हें चरित्र रूप में मूर्तिमान करने में आप माहिर हैं, आधा गाँव की आरंभिक पंक्तियों में आप कहते हैं - "गंगा इस नगर के सिर पर और गालों पर हाथ फेरती रहती है, जैसे कोई माँ अपने बीमार बच्चे को प्यार कर रही हो , परन्तु जब इस प्यार की कोई प्रतिक्रिया नहीं होती , तो गंगा बिलख-बिलखकर रोने लगती है और यह नगर उसके आँसुओं में डूब जाता है ।"

गंगा के किनारे बसने वाले गाँव और शहरों से गंगा का बहुत ही घनिष्ठ लगाव है गंगौली भी इसका अपवाद नहीं है । गंगौली के लोगों की उपेक्षा से गंगा रोने लगती है और गंगौली का उसमें डूबना एक नये भावलोक को निर्मित करता है । प्रकृति और परिवेश के प्रति संवेदना इस कथा को और भी प्रभावी और संप्रेषणीय बनाती है भाषा और संवेदना के सूक्ष्म तत्व इस उपन्यास में आरम्भ से लेकर अन्त तक देखने को मिलते हैं ।भला कौन अपनी मातृभूमि को छोड़कर जाना चाहेगा , वह तो आजीविका के कारण मजबूर हैं आपनी माटी छोड़ने को । इस पीड़ा को राही मासूम रजा ने बहुत ही शिद्दत से महसूस करते हुए लिखते हैं कि –

"कलकत्ता !

कलकत्ता किसी शहर का नाम नहीं है ।गाजीपुर के बेटे-बेटियों के लिए यह भी विरह का नाम है । यह शब्द विरह की एक पूरी कहानी है , जिसमें न मालूम कितनी आँखों का काजल बहकर सूख चूका है । हर साल हजारों-हजार परदेस जानेवाले मेघदूत द्वारा हजारों-हजार सन्देश भेजते हैं । शयफ इसीलिए गाजीपुर में टूटकर पानी बरसता और बरसात में नयी पुरानी दीवारों ,मस्जिदों और मन्दिरों की छतों और स्कूलों की खिड़कियों के दरवाजों की दरारों में विरह के अंखुए फूट आते हैं ,और जुदाई का दर्द जाग उठता है और गाने लगते हैं :

बरसत में कोऊ घर से ना निकसे

तुमहिं अनूक बिदेस जवैया ------

कलकत्ता, बम्बई , कानपुर और ढाका – इस शहर की हदें हैं ।"

 उपरोक्त पंक्तियों लेखक ने हमारे जीवन के उस यथार्थ को अभियक्त किया है , जिसे हम ना चाहते हुए भी जी रहे हैं । विरह की पीड़ा और वेदना तब और घनीभूत हो जाती है , जब लेखक लिखता है कि – दरवाजों की दरार में विरह के अंखुए फूट आते हैं । आधा गाँव की भाषा में संवेदना एवं सहृदयता को पिरोकर कथाकार ने प्रस्तुत किया है । संवेदना और ग्रामीण विरासत को समेटने के क्रम में जो भी भाषिक प्रयोग राही मासूम रजा कर सकते थे वो सभी प्रयोग इस उपन्यास में देखने को मिलता  है ।


आधा गाँव की पूरी कथा कथाकार ने पूरे मनोयोग से लिखा है । भाव , भाषा और शिल्प ऐसा सामंजस्य विरले ही उपन्यासों में देखने को मिलता है । बोली, बानी ,गाली और मानव मन के विविध विकारों और विचारों को लेखक ने कथा के कैनवास पर जीवन्त कर दिया है  


Comments

  1. बहुत ही अच्छा अवलोकन इससे उपन्यास पढ़ने की प्रेरणा मिलेगी

    ReplyDelete
    Replies
    1. बहुत बहुत आभार , इस उत्साह वर्धन के निमित्त

      Delete

Post a Comment

Popular posts from this blog

सूर्यकान्त त्रिपाठी "निराला": काव्यगत विशेषताएं

मूट कोर्ट अर्थ एवं महत्व

विधि पाठ्यक्रम में विधिक भाषा हिन्दी की आवश्यकता और महत्व