राग दरबारी की कथा भाषा और व्यंग्य ’
व्यंग्यात्मक भाषा की सृजनात्मक प्रस्तुतिः ‘राग दरबारी’
हिन्दी उपन्यास साहित्य में हमारे समाज, जीवन और जीवन स्थितियों का व्यापक चित्र देखने को मिलता है। मानव जीवन निरंतर ¬प्रतिपल बदलता रहता है, इसके कारण उसकी क्रियाएँ-प्रतिक्रियाएँ भी बदलती रहती है। इस प्रकार कह सकते हैं कि मानव जीवन एक प्रयोगशाला है, जिसमें अनेक प्रकार की भौतिक एवं रासायनिक प्रक्रियाएँ होती रहती हैं, जिसका प्रभाव हिंदी उपन्यासों पर देखने को मिलता है। उपन्यासों का विषयवस्तु हमारा सामाजिक जीवन होता है, और सामाजिक जीवन में परिवर्तन के परिणामस्वरूप उपन्यासों के विषयवस्तु, शिल्प, भाषा और संरचना में अंतर देखने को मिलता है।
औपन्यासिक भाषा के स्तर पर प्रेमचन्द की सामान्य जन की भाषा को सहज कथा शिल्प में प्रस्तुत करने की जो परम्परा आरम्भ हुई उसे आगे बढ़ाने का कार्य बाद के कथाकारों ने बखूबी किया। कथा साहित्य की भाषा का स्वरूप साहित्यिक भाषा से भिन्न होता है। कथा की भाषा में काव्य, नाटक, निबन्ध और साहित्य की अन्य विधाओं की भाषा का सामंजस्य भी देखने को मिलता है। हिन्दी उपन्यास साहित्य के इतिहास पर दृष्टिपात करें तो हिन्दी उपन्यास साहित्य का इतिहास बहुआयामी देखने को मिलता है। सामाजिक, ऐतिहासिक, मनोवैज्ञानिक, आंचलिक सभी तरह के उपन्यास हिन्दी में रचे गये। इन सभी उपन्यासों की भाषा एवं शिल्प भी अलग-अलग हैं। परिवर्तनशीलता हिन्दी उपन्यासों के मूल चरित्र के रूप में देखने को मिलती है।
हमारे समाज में होने वाले परिवर्तनों का प्रतिबिम्बन हिन्दी उपन्यासों में बखूबी किया गया है। सामाजिक परिवर्तनों को अंकित करने की दृष्टि से हिंदी के कुछ उपन्यासों का विशेष महŸव है। जिसमें ‘राग दरबारी’ का विशिष्ट स्थान है। ‘राग दरबारी’ हिंदी साहित्य का बहुपठित एवं बहुचर्चित उपन्यास है। इस उपन्यास में कथाकार ने हमारे समाज में व्याप्त विसंगतियों, विद्रुपताओं, देश की सामाजिक संरचना एवं राजनितिक कार्यव्यापार का चित्रण करते हुए समाज के हर कोने का लेखा-जोखा प्रस्तुत किया है। रागदरबारी में भारत की उस तस्वीर को लेखक ने उभारने की चेष्टा की है, जिसमें हम आजादी के बाद भी अपना जीवन व्यतीत कर रहे हैं लेखक के शब्दों में कहें तो कह सकते हैं कि-‘‘यह राग उस दरबार का हैं जिसमें हम देश की आजादी के बाद और उसके बावजूद भी पड़े हुए हैं।’’
राग दरबारी में भारत का राग-प्रस्तुत करते हुए लेखक की भाषा रागमय हो गयी है। हिंदी कथा-साहित्य में राग दरबारी की भाषा अपने खास अंदाज के लिए जानी जाती है। आधुनिक काल में भाषा के स्तर परजो नवीनीकरण भारतेंदु ने आरंभ किया था उसे हिंदी कथा-साहित्य ने एक नया रूप प्रदान किया। हिंदी कथा साहित्य को नये कलेवर एवं नई भंगिमा से संपृक्त करने का श्रेय प्रेमचंद को है। प्रेमचंद ने विस्तृत सामाजिक भूमि को अपनी कथावस्तु का विषय बनाया। ऐसा करते हुए प्रेमचंद ने भाषा के स्तर पर सामाजिक जीवन की भाषा का प्रयोग किया। भाषाई वैविध्य प्रेमचंद के उपन्यासों में देखने को मिलता है। उनके अधिकांश पात्रों के नाम ग्रामीण परिवेश के नामों के अनुरूप ही रखे गये हैं।
प्रेमचंद के कथा-साहित्य में भाषा की औपान्यासिक कथावस्तु के स्तर पर गलाने एवं सामाजिक भाषा के भंगिमा की सूक्ष्म अनुभूति को अभिव्यक्ति नहीं प्राप्त हो सकी है। हिंदी कथा-साहित्य की भाषा को नये ढंग से गलाने का कार्य जैनेंद्र ने शुरू किया, अज्ञेय ने उसे प्रौढ़ बनाया और रेणु, अमृतलाल नागर, मनोहर श्याम जोशी, श्रीलाल शुक्ल, राही मासूम रजा, काशीनाथ सिंह, शानी, कृष्ण बलदेव वैद आदि कथाकारों ने उसे विविध भंगिमाएँ प्रदान कीं।
जैनेंद्र एवं अज्ञेय की भाषा ऐसी भाषा है, जिसमें कथा-साहित्य की भाषा का प्रतिमान स्थापित हुआ है, जैनेंद्र के यहाँ की बनावट एवं बुनावट संश्लिष्ट रूप में देखने को मिलती है। ‘त्यागपत्र’ इस दृष्टि से विशिष्ट उपन्यास है। अज्ञेय भाषा के सजग प्रयोक्ता हैं, चाहे वह काव्य का क्षेत्र हो, कहानी या उपन्यास का क्षेत्र हो या उनका स्वयं का जीवन हो। अज्ञेय कविता के क्षेत्र में अपने विशिष्ट प्रयोगों के लिए जाने जाते हैं। अपने उपन्यासों में भी अज्ञेय ने भाषा और विषयवस्तु के स्तर पर नये प्रयोग किये हैं। अज्ञेय भाषा और शिल्प के क्षेत्र में नये-नये प्रयोग करते हैं, जिसका अनुसरण परवर्ती कथाकारों ने किया।
अपनी पुस्तक ‘सामाजिक यथार्थ और कथा भाषा’ में कथा साहित्य की भाषा पर विचार करते हुए अज्ञेय ने लिखा है कि- ‘‘पूरा समाज जिस भाषा के साथ जीता है, उसमें और उसी के साथ जीते हुए अगर हम उस जीवन सन्दर्भ को पहचानते हैं और उस भाषा में रचना करते हैं तो हमारा समाज भी रचनाशील हो सकता है। भाषा हमारी शक्ति है, उसको हम पहचानें, यही रचनाशीलता का उत्स है, व्यक्ति के लिए भी और समाज के लिए भी।’ (भूमिका पृष्ठ-27)
भाषा और समाज के जिन रचनात्मक संबधों पर अज्ञेय ने विचार व्यक्त किया, उसका संयोजन स्वाधीनता के बाद के उपन्यासों में देखने को मिलता है।
फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ के ‘मैला आँचल’ के प्रकाशन से कथा भाषा की भंगिमा, तेवर और स्वाद पूर्णतः बदल गया। भाषा के स्तर पर ऐसा व्यापक प्रयोग पूर्ववर्ती कथाकारों द्वारा नहीं किया गया। भाषा और शिल्प के स्तर पर नये प्रयोगों का आरंभ तो जैनेंद्र एवं अज्ञेय ने किया लेकिन रेणु ने सामान्य और अतिसामान्य व्यक्ति की भाषा को अपनी कथाभाषा में स्थान दिया, जिससे उस जीवन का यथार्थ औपन्यासिक फलक पर सजीव हो उठा, जिसे कथाकार प्रस्तुत करना चाहता था। कथाभाषा के स्तर पर क्षेत्रीय बोलियों की भंगिमा का प्रयोग कर एक नई कथाभाषा की निर्मित का श्रेय रेणु को है, जिसे परवर्ती कथाकारों ने आगे बढ़ाया।
इसी परंपरा में अमृत लाल नागर, मनोहर श्याम जोशी, श्रीलाल शुक्ल, शानी, राही, मासूम रजा, काशीनाथ सिंह आदि कथाकार आते हैं। इन सभी कथाकारों का कथाभाषा में उनकी श्रेत्रीय बोलियों का व्यापक स्तर पर प्रयोग देखने को मिलता है। लोक जीवन में प्रचलित बोली-बानी के साथ-साथ लोकगीतों, मुहावरों एवं लोकजीवन में प्रयुक्त होने वाली गालियों का प्रयोग देखने को मिलता है। इसी परंपरा में ‘श्रीलाल शुक्ल’ भी आते हैं। ‘श्रीलाल शुक्ल’ कृत ‘राग दरबारी की’ भाषा-योजना अपने आप में विशिष्ट है। इस उपन्यास की भाषा में देशज भाषा एवं बोलियों का रस भी है, और व्यंग्य की मुखरता भी। भाषा के स्तर पर ऐसा व्यापक मिश्रण और व्यंग्य का पैनापन हिंदी कथा-साहित्य में अन्यत्र देखने को नहीं मिलता, उपन्यास की लगभग सभी पंक्तियों में व्यंग्यात्मक मुद्रा देखने को मिलती हैं। इस उपन्यास की भाषा में उस क्षेत्र में प्रचलित लोकभाषा का प्रयोग देखने को मिलता है, जिस क्षेत्र में श्रीलाल शुक्ल अपना जीवन व्यतीत कर रहे थे। वैसे भी इस क्षेत्र के कथाकारों की भाषा में अनूठापन देखने को मिलता है। अमृत लाल नागर की भाषा और उनका भाषा संस्कार इस दिशा में एक विशिष्ट उदाहरण है। मनोहर श्याम जोशी ने अपने संस्मरण ‘लखनऊ मेरा लखनऊ’ में यह खुले मन से स्वीकार किया है कि उनकी भाषा में जो वैविध्य देखने को मिलता है उसमें नागरजी का विशेष योगदान है। जोशीजी ने अन्य साहित्यिक प्रभावों एवं साहित्यकारों का भी वर्णन किया है।
श्रीलाल शुक्ल भी इसी क्षेत्र के कथाकार थे और यह प्रभाव उनकी भाषा में भी देखने को मिलता है। लेकिन यहाँ यह ध्यान देने योग्य है कि श्रीलाल शुक्ल की भाषा में देशी ठसक के साथ व्यंग्य की महीन धार भी मौजूद है। श्रीलाल शुक्ल ने ग्रामीण जीवन के सूक्ष्म तंतुओं का अध्ययन किया, भाषा की सूक्ष्म संवेदना को परखा और क्षेत्रीयता संतुलित रूप में प्रस्तुत किया। इस दृष्टि से ‘राग दरबारी’ उनका विशिष्ट उपन्यास है। व्यंग्यात्मक भाषा और देशज भाषा का अद्भुत मिश्रण यहाँ देखने को मिलता है। इस उपन्यास की आरंभिक पंक्तियाँ हैं-‘‘शहर का किनारा। उसे छोड़ते ही भारतीय देहात का महासागर शुरू हो जाता था।’’
वहीं एक ट्रक खड़ा था। उसे देखते ही यकीन हो जाता था, इसका जन्म केवल सड़कों के साथ बलात्कार करने के लिए हुआ है। जैसे कि सत्य के होते हैं, इस ट्रक के भी कई पहलू थे। पुलिसवाले उसे एक ओर से देखकर कह सकते थे कि, ‘‘वह सड़क के बीच में खड़ा है, दूसरी ओर देखकर ड्राइवर कह सकता था कि वह सड़क के किनारे पर है।’’
इन पंक्तियों में लेखक ने आज की व्यवस्था पर दृष्टिपात किया है। आरंभिक पंक्तियों में ही लेखक ने व्यंग्यात्मक तेवर अपनाया है। सत्य की तरह ट्रक के भी कई पक्ष थे, पुलिस के अपने तर्क और ड्राइवर के अपने तर्क। आगे की पंक्तियों में व्यंग्य की मुद्रा और तेवर सघन होता गयी है-‘‘आज रेलवे ने उसे धोखा दिया था। स्थानीय पैसेंजर ट्रेन को रोज की तरह दो घंटा लेट समझकर वह घर से चला था, पर वह सिर्फ डेढ़ घंटा लेट होकर चल दी थी।’’
यहाँ लेखक ने हमारी व्यवस्था की खबर ली है, ट्रेन का लेट होना, लेट होते ही रहना और उसी के अनुसार लोग अपनी आदत डाल लेते हैं। इसी कारण लोग ट्रेन के नियत समय की परवाह नहीं करते वरन् अपने अनुसार ट्रेन का समय ही निर्धारित कर लेते हैं और अपने द्वारा निर्धारित समय पर ट्रेन के न गुजरने पर शिकायत करते हंै। श्रीलाल शुक्ल ने व्यंग्यात्मक मुद्रा में भाषा का इस्तेमाल नितांत नये तरीके से किया है। आज रेलवे ने धोखा दे दिया और धोखा का कारण है ट्रेन का दो घंटे लेट न गुजरना। इस उपन्यास में बोली, बानी, भाषा का ऐसा प्रयोग देखने को मिलता है कि हम सहज ही यह अनुमान लगा लेते हैं कि कथाकार ने किस तरह हमारे ग्राम्य जीवन को जिया है, जिया ही नहीं वरन् ग्राम्य जीवन का अध्ययन, मनन और विश्लेषण भी किया है।
इस उपन्यास में परिवेश, पात्रों के जीवन और हमारी सोच का प्रभावशाली चित्रण किया गया है। इस चित्रण में भाषा एक महत्वपूर्ण अवयव है। श्रीलाल शुक्ल ने उपन्यास की भाषा में सामान्य जीवन की भंगिमा और उसकी सोच के साथ साहित्यिकता का भी समावेश किया है। ऐसा भाषा-प्रयोग जो अपने व्यंग्य में अत्यंत मुखर है और अभिव्यक्ति में सरस। राग दरबारी में श्रीलाल शुक्ल ने हमारे सामाजिक जीवन को अभिव्यक्त किया है। रूप्पन बाबू के व्यक्तित्व के संबंध में कथाकार ने कहा है कि- ‘‘रूप्पन बाबू स्थानीय नेता थे। उनका व्यक्तित्व इस आरोप को काट देता था कि इंडिया में नेता होने के लिए पहले धूप में बाल सफेद करने पड़ते हैं। उनके नेता होने का सबसे बड़ा आधार यह था कि वे सबको एक निगाह से देखते थे। थाने में दारोगा और हवालात में बैठा हुआ चोर-दोनों उनकी निगाह में एक थे।’’
उपर्युक्त पंक्तियों में यद्यपि कथाकार ने रूप्पन बाबू के चरित्र को दिखाया है, लेकिन यह चित्रण लगभग सभी स्थानीय नेताओं पर लागू होता है। भाषा सीधी-सपाट है और व्यंग्य मुखर। चोर और दारोगा दोनों को समान दृष्टि से देखना हमारे राजनितिज्ञों की आदत या लेखक के शब्दों में कहें तो आवश्यक योग्यता बन गई है। आगे श्रीलाल शुक्ल रूप्पन बाबू की वेश-भूषा का चित्रण करते हुए भी व्यंग्यात्मक मुद्रा अपनाते है-
‘‘वे दुबले-पतले थे, पर लोग उनके मुँह नहीं लगते थे। वे लंबे गरदन, लंबे हाथ और लंबे पैर वाले आदमी थे। जन नायकों के लिए ऊल-जलूल और नये ढंग की पोशाक अनिवार्य समझकर वे रंगीन बुश्शर्ट पहनते थे और गले में रेशम का रूमाल लपेटते थे। धोती का कोंछ उनके कंधे पर पड़ा रहता था। वैसे देखने में उनकी शक्ल एक घबराये हुए मरियल बछड़े की-सी थी, पर रोब उनका पिछले पैरों पर खड़े हुए एक हिनहिनाते घोड़े का-सा जान पड़ता था।’’
परिधान और शारीरिक सौष्ठव के चित्रण की भाषा भी व्यंग्यात्मकता से परिपूर्ण है। जननायकों के निमिŸा आवश्यक परिधान और उसके पश्चात रूप्पन बाबू के चेहरे और रोब का बखान और उन्हें पैदायशी नेता घोषित करना, अद्भुत भाषा कौशल क नमूना है। इसी प्रकार वे विद्यालय के बच्चों के परिधान के बारे में कहते हैं कि- ‘काॅलिज के हर औसत विद्यार्थी की तरह यह लड़का भी पोशाक के मामले में बेतकल्लुफ था। इस वक्त वह नंगे पांव, एक ऐसे धारीदार कपड़े का मैला पायजामा पहने हुए खड़ा था, जिसे शहर वाले प्रायः स्लीपिंग सूट के लिए इस्तेमाल करते हैं। वह गहरे कत्थई रंग की मोटी कमीज पहने था, जिसके बटन टूटे थे। सिर पर रूखे और कड़े बाल थे। चेहरा बिना धुला हुआ और आंखे गिचपिची थीं। देखते ही लगता था, वह किसी प्रोपेगैंडा के चक्कर में फंसकर कालिज की ओर भाग आया है।’
इसमें गांव के स्कूल में पढ़ने वाले छात्र का चित्र लेखक ने प्रस्तुत किया है। ‘औसत विद्यार्थी’ और उसकी वेश-भूषा दोनों का संयोजन कर लेखक ने हमारे प्राथमिक विद्यालयों की पोल खोली है। मैला पायजामा, कत्थई रंग की मोटी कमीज, गिचपिचीं आंखें ये सभी विशेषण हमारे ग्राम्य जीवन के यथार्थ को अभिव्यक्त करते हैं। और अंत में कथाकार जब यह कहता है किं- ‘देखते ही लगता था, वह किसी प्रोपेगैडा के चक्कर में फंसकर काॅलिज की ओर भाग आया है।’ तब लेखक हमारे सर्व शिक्षा अभियान की पोल खोलता है। वह बच्चा विद्यालय आया नहीं, भाग आया है। यहां लेखक का जोर प्रोपेगैंडा पर है।
‘इसके बाद वार्ता में गतिरोध पैदा हो गया। मदारी, जहन्नुम में जाने के बजाय वहीं पर जोर-जोर से गाने लगा था और उसकी डुगडुगी अब एक नयी ताल पर बज रही थी।’
लेखक का यह वक्तव्य एक वार्ता के दौरान आता है। पर व्यंग्यात्मक भाषा को और अधिक प्रभावोत्पादक बनाने के लिए लेखक ने देशज शब्दों, वाक्यों, मुहावरों और गालियों का प्रयोग कर भाषा की अभिव्यक्ति क्षमता में वृद्धि की है। इस उपन्यास की भाषा में अवधी के शब्दों का प्रयोग भी देखने को मिलता है। ‘इसी तमीज से वाइस प्रिंसिपली कीजिएगा। भइया, यहै हालु रही तौ वाइस प्रिंसिपली तो अपने घर रही, पार साल की जुलाई माँ डगर घूमयौ।’
ऐसे वाक्यों का प्रयोग लेखक ने अत्यन्त सहज रूप में किया है। प्रिंसिपल जब भी नाराज होते हैं तो अवधी बोलने लगते हैं। लारी लप्पा, लारी लप्पा, चोखा काम- चोखा दाम, पालिटिक्स भिड़ाते हैं, बहराम चोट्टा भी कोई चोट्टा था, कभी न उखड़ने वाले गवाह-कभी न चूकने वाले मर्द, क्या आजकल के चोट्टे सचमुच ही ऐसे तीसमार खाँ? जैसे लोक प्रचलित वाक्यों का प्रयोग उपन्यास की भाषा को जीवन्तता प्रदान करते हैं। इसके साथ-ही-साथ लोक प्रचलित उक्तियों का प्रयोग उपन्यास की भाषा को विशिष्ट बनाते हैं-
‘कि पुरुस बली नहिं होत है, कि समै होत बलवान।
कि भिल्लन लूटीं गोपिका, कि वहि अरजुन वहि बान।।’
ऐसे प्रयोगों से लेखक ने शिवपालगंज की कथा को मूर्त रूप में प्रस्तुत किया है। यद्यपि यह कथा शिवपालगंज की है, लेकिन भारत के अधिकांश गांवों को मूर्त रूप में प्रस्तुत करने में सक्षम है। इस तरह के मिश्रण से पाठक या आस्वादक को कठिनाई नहीं होती है। वरन् उपन्यास की संप्रेषणीयता में बृद्धि होती है। भाषाई मिश्रण की उदारता और उसका सजग प्रयोग देखते ही बनता है। यहां उपन्यास की भाषा पर आंचलिकता हावी नहीं हुई है, वरन् भाषा प्रयोग का नया कौशल देखने को मिलता है। पूरे उपन्यास की भाषा नये प्रकार के भाषा-प्रयोग से भरी हुई है। भाषा की सर्जनात्मक और संरचनात्मक शक्ति का श्रीलाल शुक्ल ने भरपूर प्रयोग किया है। ऐसे प्रयोग के पीछे उनका अनुपम व्यक्तित्व, सूक्ष्म अध्ययन और सार्थक विश्लेषण क्षमता है। उनके द्वारा प्रयुक्त भाषा की बनावट एवं बुनावट अत्यंत संश्लिष्ट है।
‘राग दरबारी’ हिन्दी औपन्यासिक फलक पर व्यंग्य- उपन्यास के रूप में प्रतिष्ठित है। राग दरबारी उपन्यास की संरचना पर विचार करते हुए मधुरेश ने लिखा है कि - यहाँ वे (श्रीलाल शुक्ल) व्यंग्य और उपन्यास के दो परस्पर विरोधी अनुशासनों का तनाव झेलकर व्यंग्य-उपन्यास की संभावना उजागर करते हैं। ‘राग दरबारी’ अपनी संरचना में बहुत-कुछ एक ऐसे चमत्कारी झोले की तरह है, जिसमें लेखक रास्ता चलते सब कुछ उठाकर रखते चलने की छूट चाहता है। अपने समय की विद्रूपताओं के प्रति वह एक तीखी और तल्ख टिप्पणी है। ‘श्रीलाल शुक्ल’ के व्यंग्य में करूणा का तत्व लगभग नहीं के बराबर है। इसके बदले वे पैरोड़ी और कार्टून के अधिक निकट हैं। ‘राग दरबारी’ स्वाधीन भारत में सब कहीं बनते शिवगंज की सच्चाई को उसी भदेस शैली में उभारता हैं।’’(हिन्दी उपन्यास का विकास, पृष्ठ-186)
भाषा और शैली की दिशा में किये गये प्रयोगों के कारण समीक्ष्य उपन्यास हिन्दी का विशिष्ट उपन्यास बन पड़ा है। व्यंग्यात्मक भाषा, यह राग प्रस्तुत करते हुए उपन्यास की भाषा में सृजनात्मकता और व्यंग्यात्मकता का अदभूत सामंजस्य स्थापित किया है।
सन्दर्भ ग्रन्थ सूचीः-
1. रागदरबारी: श्रीलाल शुक्ल
2. हिन्दी साहित्य का इतिहासः डाॅ0 नगेन्द्र
3. हिन्दी उपन्यास का इतिहासः मधुरेश
4. हिन्दी उपन्यास का इतिहासः गोपाल राय
5. सामाजिक यथार्थ और कथा भाषाः अज्ञेय
6. उपन्यास का पुनर्जन्मः परमानन्द श्रीवास्तव
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