बाणभट्ट की आत्मकथाः भाषिक प्रयोग की नव्यता : डा0 अमरेन्द्र कुमार श्रीवास्तव

                                     बाणभट्ट की आत्मकथाः भाषिक प्रयोग की नव्यता


प्राचीन भारतीय  समाज एवं संस्कृति को आधुनिक युगानुरूप व्याख्ययित करने वालों में आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का योगदान अत्यंत महत्वपूर्ण है। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने हिन्दी साहित्य को बहुविध समृद्ध किया। निबन्ध, उपन्यास इतिहास लेखन, समीक्षात्मक लेखन के साथ-साथ हिन्दी भाषा को भी आपने समृद्ध किया। द्विवेदी जी भारतीय संस्कृति की विषाल परम्परा को अपने साहित्य के माध्यम से वर्तमान संन्दर्भों में प्रस्तुत कर भारतीय समाज को तेजोदीप्त करने का कार्य किया। भारतीय संस्कार, संस्कृति और सभ्यता की उदाक्तता सदियों से अपनी उदार रही है। इसी उदारता और ग्रहणषीलता के परिणाम स्वरूप भारतीय संस्कृति विविधताधर्मी होती गयी है। हजारी प्रसाद द्विवेदी ने अपनी साहित्य की विषय वस्तु के रूप में भारत की विषाल सांस्कृतिक परम्परा और इतिहास को अपनाया। आपके निबन्धों और उपन्यासों में भारतीयता जीवन्त हो उठी है।

आप के उपन्यास आधुनिक युग में जीवन की व्यापकता को अभिव्यक्त करने की दृष्टि से हिन्दी उपन्यास साहित्य में विषेष महत्वपूर्ण हैं। सामाजिक, ऐतिहासिक, मनोवैज्ञानिक और आंचलिक उपन्यासों की परम्परा में बहुत से ऐसे उपन्यास हैं, जिनमें, हमारा समाज जीवन्त हो उठा है। ऐतिहासिक उपन्यास लेखकों की परम्परा में आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी   का नाम विषिष्ट है। द्विवेदी जी ने ऐतिहासिक आख्यान को नये षिल्प के रूप में प्रस्तुत किया। बाणभट्ट की आत्मकथा, पुनर्नवा, अनामदास का पोथा और चारूचन्द्रलेख आप द्वारा रचित उपन्यास हैें। इन सभी उपन्यासों की कथावस्तु तो ऐतिहासिक है लेकिन कथाषिल्प सभी उपन्यासों का अलग-अलग है।

’बाणभट्ट की आत्मकथा‘ आत्मकथा शैली का उपन्यास है। इसकी षिल्प एवं सरचना का कलेवर  विषिष्ट है। इस उपन्यास  ने सबसे पहले अपने षिल्प से पाठकों को चैंकाया और आकर्षित किया। इस उपन्यास का शीर्षक चमत्कार पूर्ण एवं आकर्षक है। उपन्यास के आरम्भ में द्विवेदी जी ने सूचित किया है कि शान्ति निकेतन की अन्तेवासिनी  मिस कैथाराइन द्वारा प्राप्त अनुवाद के रूप में बाणभट्ट की आत्मकथा को प्रस्तुत करते हैं। उपन्यास की कथावस्तु प्रेम संवेदना को केन्द्र में रखकर बुनी गयी है। इस कथावस्तु में इतिहास और कल्पना का मिश्रण अद्भूत कौषल के साथ किया गया है।

बाणभट्ट की आत्मकथा का कथा संसार इतिहास पर आधारित है, पर उसमें इतिहास बहुत कम और कल्पना तथा लोक प्रसंगों की अधिकता है। इतिहास केवल इतना है कि हर्षवर्द्धन के राजदरबार में बाणभट्ट को राजकवि के रूप में प्रतिष्ठिा तो मिली लेकिन प्रारम्भिक संघर्षों के पष्चात्। इसे आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी अपने कल्पना के इन्द्रजाल द्वारा समकालीन साहित्य, संस्कृति और लोकश्रुतियों के आधार पर विस्तृत किया। ऐतिहासिक कथा संसार का आरम्भ तो हिन्दी उपन्यास सक्रिय में पहले ही हो चुका था, लेकिन द्विवेदी जी ने ऐतिहासिक उपन्यास लेखन को नयी दिषा दी जो उपन्यास को इतिहास के सार्थकता और सर्जनात्मकता से सम्पन्न करने वाली थी। 

उपन्यास की कथावस्तु के अनुरूप भाषा का प्रयोग उपन्यास की प्रभावोत्परकता बढ़ा देती है। ऐतिहासिक विषय वस्तु को प्रस्तुत करते हुए आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने संस्कृत निष्ठ हिन्दी का प्रयोग किया है। बाणभट्ट की आत्मकथा की कथावस्तु के सन्दर्भ में गोपाल राम का कथन है-

बाणभट्ट की आत्मकथा का केन्द्रीय विषय उदात्त प्रेम है, जो वासनाज्न्य न होकर सम्पूर्ण आत्मसमर्पण, आत्मदान, लोकमंगल और तपस्या से परिचलित और पुष्ट होता है। बाणभट्ट और भट्टिनी, निपुणिका और बाणभट्ट, अघोर भैरव और महामाया तथा सुचरिता और विरति व्रज के पे्रम प्रसंगों से इसी विचार की पुष्टि होती है। बाणभट्ट और निपुणिका तथा भट्टिनी  के प्रेम का चित्रण जिस उदात्त स्तर पर द्विवेदी जी ने किया है, वह हिन्दी साहित्य में अकेला है।1 

उदाक्त प्रेम का वर्णन सातवीं शताब्दी के परिवेष के अनुरूप करते हुए द्विवेदी जी भाषा के माध्यम से बड़ी ही सजगता से पाठकों के समक्ष प्रस्तुत किया है। परिवेष अंकन करते हुए द्विवेदी जी की भाषा चित्रात्मक रूप में दृष्टिगत होती है-

’’मैं नगर के एक चैराहे पर खड़ा-खड़ा मुग्ध भाग से यह दृष्य देख रहा था। इसका सबसे मजेदार हिस्सा वह था, जिसमें राजमहल में रहने वाले बौने, कुबड़े, नपुंसक और मूर्ख लोग उद्धत नृत्य से विहवल होकर भागे जा रहे थे।  एक बृद्ध कुंचकी की दषा बड़ी दयनीय हो गई थी। उसके गले में एक नृत्य परायण रमणी का उत्तरीय वस्त्र अटक गया था ओैर खींच-तान में पड़़ा हुआ बेचारा बूढ़ा  उपहास का पात्र बन गया था। राजकन्याओं का स्थान जूलूस  के ठीक मध्यभाग  में था। यहाॅं का नृत्य गान संयत, गम्भीर  और मनोहारी था। एक ओर भेरी, मृदंग, पटह, काहल और शंख के निनाद से धरित्री फटी जा रही थी और दूसरी ओर राजकन्याओं के कपोलन्तली को आन्दोलित मणिमय कुण्डलों ओर उत्पल -पत्रों से जगमगाती हुई षिविकाएॅं बीच-बीच में सनूपुर चरणों की ईषत् झंकार से मुखरित हो उठती थी।‘‘2 

उपरोक्त पंक्तियों मंे द्विवेदी जी ने सतवीं सदी के भारत का चित्र प्रस्तुत करते हैं। भारतीय इतिहास के प्रति अगाध आस्था और भारतीयता का गहन अध्ययन का परिणाम है, यह वर्णन। वाद्य-यन्त्र से परिवेष सभी को द्विवेदी जी जीवन्त रूप में प्रस्तुत किया है। भेरी, मृदंग, पटह, काहल एवं शंख जैसे वाद्य-यन्त्र से आधुनिक समय के लोगों का परिचय कराने का श्रेय द्विवेदी जी को ही जाता है। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने अपनी भाषा  के माध्यम से हमारा साक्षात्कार मध्यकालीन समाज से करा देते हैं। भाषा अभिव्यक्ति का सर्वोत्तम माध्यम है, द्विवेदी जी के भाषा की बनावट और संरचना मध्यकालीन समाज को हमारे सम्मुख साकार करने में समर्थ है- 

’’आचार्य के इंगित पर कुमार भी उठे और मैं भी उठ गया। बाहर निकलकर देखा तो मध्याहन कालीन सूर्य अपनी सहस्र -सहस्र  तप्त किरणों से अग्निस्पुलिंग की वर्षा कर रहा था।  वातोद्धत धूल से पटलित होकर आकाष धूस रामान हो गया था। विहार का अंगण-कुट्टिम सूर्य-किरणों से तप्त होकर अग्नि के समान दाहक बना हुआ था और अंगारमय वातावरण में विहार के बीचवाला अष्वत्थ आपाद ताम्र किसलयों से लदा हुआ था ऐसा जान पड़ता  था कि धरती के भीतर से कोई ज्वलन्त आग्नेयगिरि ज्वालमाला के रूप में धरती की अन्तः स्थित प्रचंड उष्णता को उगल रहा है।‘‘3

ग्रीष्म कालीन प्रचण्ड धूप और धूप से निर्मित वातावरण का अंकन करते हुए द्विवेदी जी ऐसा शब्दों का वागजाल बुनते हैं कि उसमें ग्रीष्म की भीषणता के साथ-साथ युगानुभूति भी हमारे समझ उपस्थित हो जाती है। आग्नि स्फुलिंग, अंगण-कुट्टिम, वातोद्धूत, अष्वत्थ, ताम्र किसलय, आग्नेय जैसे शब्दों का प्रयोग पाठक या आस्वाद को कौतुक से भर देता है। परिवेष के साथ -साथ संवादों में भी द्विवेदी जी ने पात्र एवं भाव का अनुगमन करने वाली षब्दावली से औपन्यासिक भाषा के नयी ऊॅंचाई दी है।

बाणभट्ट की आत्मकथा में उदात्त प्रेम की भावना की द्विवेदी जी ने अभिव्यक्त करते हुए ऐसे भाषा अत्यन्त जीवन्त हो उठी है-

’’क्या बताऊॅं भट्ट! मेरी - जैसी स्त्री तुम्हारे जैसे पुरूष से क्यों डरती है, यह बात अगर आज तक तुम्हारी समझ में नहीं आई तो अब नहीं आएगी।‘‘

मैं सचमुच हैरान था। निपुणिका को मुझसे डरने की क्या बात थी। निपुणिका ने ठीक ही कहा था। मैं आज तक उस अज्ञात कारण को ठीक-ठीक नहीं समझ सका। अनुमान से कुछ समझता जरूर हॅंू, पर अब मुझे अपनी समझ पर भरोसा कम ही है।मैने आष्चर्य के साथ निपुणिका को देखा और हारे हुए की तरह बोला, ’’तो निउनिया, मैं चला जाऊॅं?‘‘

निपुणिका हॅंसी। उसकी आॅंखों में जैसे एक प्रकार की चुहल थी। बोली ’’ यही तो डर की बात है भट्ट कि कब तुम किस बात पर कह उठोगे कि मैं चला!‘‘

अजीब पहेली है। मैंने कुछ देर चुप रहने के बाद कहा, ’’ निउनिया, मैं हार मानता हूॅं। मेरी कोई जरूरत भी नहीं थी, मुझसे तुम डरती भी हो और मेरा चला जाना भी ठीक नहीं है- मैं कुछ भी नहीं समझता।‘‘

निपुणिका की आॅंखों में एक अद्भुत आनन्द खेल रहा था। बोली, ’’यही तो तुम नहीं समझते कि कौन हारता है। यदि तुम समझ लेते कि कौन हारता है, तो यह भी समझ लेते कि कौन डरता है। भट्ट तुम भोले हो! त्ुम इस पृथ्वी पर षरीरधारी देवता हो।‘‘4

षब्दों के माध्यम से भावों के सूक्ष्म से सूक्ष्म उतार-चढ़ाव को द्विवेदी जी ने बड़ी ही कुषलता से कथाफलक पर पाठकों के समझ प्रस्तुत किया है। जब भी बाणभट्ट निपुणिका को सम्बोधित करता है तो प्रेमातिरेक से अभिभूत होकर निउनिया कहता है। बाणभट्ट के एक भोलपन का एहसास प्रस्तुत होता है तो निपुणिका के कथनों में स्त्री सुलभ चातुर्थ देखने को मिलता है। निपुणिका के संवादों के साथ आचार्य ने उसके भाव-भंगिमा का भी अंकन षब्दों के माध्यम से पाठकों के समझ प्रस्तुत किया है द्विवेदी लिखते हैं- ’उसकी आॅखों में एक प्रकार की चुहल थी। और उसकी भंगिमा के संदर्भ में बताते है - आखों में एक अद्भूत आनन्द खेल रहा था। इन पंक्तियों के माध्यम से आचार्य ने नारी सुलभ प्रेम की विविध भंगिमाओं हमारे समझ मूर्त कर दिया है। षरीरधारी देवता जैसे से सम्बोधन से निउनिया ने बाणभट्ट को अपना सर्वस्व मान लिया है। भावानुरूप भाषा का प्रयोग एवं षब्द संयोजन हजारी प्रसाद द्विवेदी के रचनात्मक कौषल का अभिन्न अंग हैं। पात्रों के संवाद, रूप-रंग देह याष्टि आदि सभी को मूर्त रूप में आप उपस्थित करने में सक्षम हैं। अर्मूत को भाषा के माध्यम से मूर्त कर पाठकों को द्विवेदी जी अभिभूत कर देते हैं। रूप वर्णन का उदाहरण ही देखेंः-

’उनका मुखमंडल मेघयुक्त षरच्चन्द्र के समान प्रसन्न मनोहर जान पड़ता था। उन्होने तत्काल ही स्नान कर कुसुम्भ - वस्त्र धारण किया था। प्रत्यय स्नान ने उनकी कुकुम-गौर कान्ति को निखार दिया था। उनका रूचिर अंषुकान्त (आॅंचल) मन्द-मन्द वायु के आष्लेष से चंचल हो रहा था। वे काठ की नौका में से सघः समुयजात चल-किस्लयवती मधुमालतीलता के समान फुल्ल कमनीय दिख रही थी। उनकी खुली हुई कवरी के छितराए हुए सुवणार्थ केष, कुसुम्भ की आभा से ऐसे मनोहर दिखाई दे रहे थे कि उन्हें देखकर सौवर्णषिरिण के सुकुमार तन्तुओं के पराग-पिंजर जाल का ध्यान हो आता था। वे आनन्द से प्रेरित दिखाई दे रही थी।5 

उपरोक्त रूप वर्णन में आस्वादन कर जिस आनन्द से प्रदीप्त भट्टिनी प्रतीत होती है, उसी आनन्द की अनुभूति हमें भी होती है। उपमान और प्रतीकों के उदात्त प्रयोग से द्विवेदी जी हमें अभिभूत कर देते हैं।’ संस्कृतनिष्ठ भाषा की आभा से भट्टिनी के रूप की प्रभावोंत्पादकता और भी बढ़ जाती हैं। भट्टिनी के रूप को देखकर बाणभट्ट का चित्त आनन्द से गदगद हो गया। आगे की पंक्तियों में जब द्विवेदी जी यह बताते हैं कि आज फाल्गुन की पूर्णिमा थी और प्रमत्त मदनोत्सव का दिन था, तो हृदय उस परिवेष से एकाकार कर लेता है।  फाल्गुन की पूर्णिमा अपने आप ही मादकता से मन को भर देती है, और उस पर यह रूप वर्णन तो अदभूत ही है। भारतीय संस्कृति और सौन्दर्य का यह अवगाहन अन्यत्र दुर्लभ है। ऐसे वर्णनों से यह उपन्यास भरा पड़ा है। 

संवाद किसी भी विषय वस्तु को प्राणवान और समर्थ बनाते हैं। समीक्ष्य उपन्यास के संवादों मे भी जीवन्त एवं सहजता द्विवेदी जी के व्यक्तित्व के अनुरूप ही दृष्टिगत होती है। द्विवेदी जी के अध्ययन एवं चिन्तन का गाम्भीर्य कभी भी उनके व्यक्तित्व पर हावी नहीं हुआ और यही बात उनके कृतित्व के सन्दर्भ में भी कहना अत्यन्त समीचिन होगा। भावों और भाषा का प्रवाह उनके कथ्य का अभिन्न अंग है। यह प्रवाह इस उपन्यास के पात्रों की भाषा में देखने को मिलता है-

मेरी बात भट्टिनी ने सुन ली। वस्तुतः उनको सुनाना ही मेरा उद्देष्य था। उन्होने मुझे बुलाकर कही, ’’क्या कहते हो भट्ट! सुगतभद्र क्या वहीं हैं, जो तक्षषिला की ओर धर्म प्रचार करने गये थे? क्या वे नालन्द के आचार्य शीलभद्र के गुरू भाई हैं?

’’मैं नही जानता देवि! मैंने इतना ही सुना है कि कोई सुगतभद्र नामक भिक्षु पास के विहार में रहते हैं।‘‘

’’पता लगा लो, भद्र! यदि वे आचार्य शीलभद्रके सहपाठी तक्षषिला से लौटे हुए हैं, तो मेरा भाग्य आज प्रसन्न है। वे मेरे पिता के समान हैं, उन्हें मैं, सन्देष भेजूॅंगी।‘‘

मैंने विनीत भाव से कहा, ’’भद्रे! मैं अभी पता लगाऊॅंगा। परन्तु यदि वहीं हों तो मेैं क्या सन्देषा ले जाऊॅं?

भट्टिनी ने कहा, ’’ कह देना, भद्र कि देव पुत्र तुवर मिलिन्द की कन्या आपको प्रणाम करती है और यदि प्रसाद हो तो दर्षन पाना चाहती है‘‘।

मेरे हृदय में धक् से लगा। बोला, ’’तो देवि, क्या आप तत्रभवान् विषम समर-विजयी, वाह्लीक-विमर्दन, प्रत्यन्त-बाड़व देवपुत्र तुवरमिलिन्द  की कन्या हैं?‘‘ 

श्राजबाला की आॅखें नीची हो गई। बड़े-बडे़ पुंडरीक-दल से नयनों में अश्रु भर आये। भर्राई हुई आवाज में बोली‘, ’’हाॅं, भद्र!‘‘6 

उपरोक्त संवादों मे भावों के उतार-चढ़ाव को आचार्य ने बखूबी औपन्यासिक फलक पर उकेरा है। वाणी में शालीनता और भावुकता दोंनों देखने को मिलती। भद्र ओैर देवी जैसे सम्बोधन से द्विवेदी सातवीं सदी के भाषा व्यवहार एवं संस्कार बोध से हमारा साक्षात्कार कराते हैं।

द्विवेदी जी के साहित्य में प्रकृति के विविध रूपों का वर्णन देखने को मिलता है। निबन्धों के कई विषय तो प्रकृति के विषुद्ध रूपों का चित्रण पर आधारित है। आपके निबन्धों के साथ-साथ उपन्यासों में भी प्रकृति के प्रति आपका अनुराग देखने को मिलता है। प्रकृति का वर्णन करते हुए द्विवेदी जी की लेखनी आहलादित हो जाती है। समीक्ष्य उपन्यास में भी प्रकृति का उदाक्त चित्र देखने को मिलता है। बाणभट्ट जब आचार्य से मिलकर निकलता है तो प्रकृति का जो वर्णन करता है, वह अत्यन्त मनोहारी है- ’इस समय मैने लक्ष्य किया, वृक्षों और लताओं पर वसन्त का प्रभाव पूर्णरूप् से व्याप्त हो गया था - विकसित मंजरियों के सौरभ से स्वयं आकृष्ट भ्रमरावली ने आम के वृक्षों को छा लिया था, पुष्प धूलि के केसर सघन भाव वर्णित होकर वनभूमि को पीत बालुकामय पुलिन के रूप में परिणत कर रहे थेः पुष्प-मधु के पान से आमत्त भ्रमरियाॅं विहवल-भाव से लता-रूप प्रेरणादोला पर झूला झूल रहीं थी, मन कोकिल लवली के विकसित पल्लवों के अन्तराल में लुक्कासित होकर पुष्प-मधु निकाल रहे थे और इसलिए उन पेड़ो के नीचे मधु-वृष्टि सी हो रही थीः किसी-किसी वृक्ष ओर लता से जीर्ण पुष्प गिर रहे थे और भ्रमर भार से जर्जरित उनके गर्भ केसरों से लता मंडप मनोरम हो उठे थेः ओर नाना भांति के रंग-विरंगे पक्षियों से वृक्ष -समूह अतिषय रमणीय दिखाई दे रहे थे।7 

प्रकृति के सौंन्दर्य वर्णन में द्विवेदी जी का मन कुछ ज्यादा ही रमता है। उपरोक्त चित्रण के माध्यम से द्विवेदी जी प्रकृति के रम्य चित्र हमारे समक्ष प्रस्तुत कर हमारा उस परिवेष से एकाकार  करा देते हैं। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी जी ने संवाद, परिवेष, व्यक्तित्व चित्रण सभी में भाषा के ऐसे प्रयोग किए हैं, जिससे हमारे समक्ष मध्यकालीन परिवेष का चित्र समग्रता में उपस्थित हो जाता है। औपन्यासिक भाषा की सहजता एवं सरलता की जिस परम्परा आरम्भ प्रेमचन्द्र ने अपने उपन्यासों के माध्यम से किया, उसे कलात्मक प्रौढ़ता और उत्कर्ष पर पहुॅंचाने में हजारी प्रसाद द्विवेदी का विषेष योगदान है। ऐतिहासिक उपन्यासों की परम्परा में भाषा की दृष्टि से ’बाणभट्ट की आत्मकथा‘ एक  विषिष्ट उपलब्धि है। 
















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