प्रयोगवादी कवि अज्ञेय
अज्ञेय और उनका रचना संसार ना जाने कितना नयापन अपने भीतर समेटे हुए है , भाव और शिल्प के स्तर पर जो कुछ नयापन आधुनिक हिन्दी साहित्य में देखने को मिलाता है उसका उत्स अज्ञेय के रचना लोक में हम देख सकते हैं . प्रयोगवाद के प्रवर्तक के रूप में अज्ञेय का महत्व सर्व विदित है ,लेकिन उनकी कविताओं में एक खास चेतना देखने को मिलाती है . रचना के विषय वस्तु से लेकर शिल्प और दर्शन सभी स्तरों पर अभिनव दृष्टि अज्ञेय को एक विशिष्ट कवि एवं शिल्पी के रूप में प्रतिष्ठित करती है . उनकी कविता कलगी बाजरे की की निम्नलिखित पंक्तियाँ उनके भावबोध की परिचायक हैं -
अगर मैं तुम को ललाती सांझ के नभ की अकेली तारिका
अब नहीं कहता,
या शरद के भोर की नीहार – न्हायी कुंई,
टटकी कली चम्पे की, वगैरह, तो
नहीं कारण कि मेरा हृदय उथला या कि सूना है
या कि मेरा प्यार मैला है।
बल्कि केवल यही : ये उपमान मैले हो गये हैं।
देवता इन प्रतीकों के कर गये हैं कूच।
कभी बासन अधिक घिसने से मुलम्मा छूट जाता है।
उपरोक्त पंक्तियों में लोक में प्रचलित प्रतिमानों का प्रयोग करके अपनी लोक प्रखर चेतना को जीवन्त किया है। बासन ,कलगी ,बाजरा टटकी ,कली इत्यादि शब्द लोकभाषा और लोक जीवन में प्रचलित रहे हैं।
साम्राज्ञी का नैवैद्य दान शीर्षक कविता में कवि ने अगाध आस्था और समर्पण के साथ नये दर्शन को हमारे समक्ष प्रस्तुत किया है-
साम्राज्ञी महाबुद्ध के सम्मुख रीते(खाली)हाथ आतीं हैं और उस कलि को उसी स्थान से समर्पित करतीं हैं -
हे महाबुद्ध!
मैं मंदिर में आयी हूँ
रीते हाथ:
फूल मैं ला न सकी।
औरों का संग्रह
तेरे योग्य न होता।
जो मुझे सुनाती
जीवन के विह्वल सुख-क्षण का गीत-
खोलती रूप-जगत् के द्वार जहाँ
तेरी करुणा
बुनती रहती है
भव के सपनों, क्षण के आनंदों के
रह: सूत्र अविराम-
उस भोली मुग्धा को
कँपती
डाली से विलगा न सकी।
जो कली खिलेगी जहाँ, खिली,
जो फूल जहाँ है,
जो भी सुख
जिस भी डाली पर
हुआ पल्लवित, पुलकित,
मैं उसे वहीं पर
अक्षत, अनाघ्रात, अस्पृष्ट, अनाविल,
हे महाबुद्ध!
अर्पित करती हूँ तुझे।
हे महाबुद्ध!
मैं मंदिर में आयी हूँ
रीते हाथ:
फूल मैं ला न सकी।
औरों का संग्रह
तेरे योग्य न होता।
जो मुझे सुनाती
जीवन के विह्वल सुख-क्षण का गीत-
खोलती रूप-जगत् के द्वार जहाँ
तेरी करुणा
बुनती रहती है
भव के सपनों, क्षण के आनंदों के
रह: सूत्र अविराम-
उस भोली मुग्धा को
कँपती
डाली से विलगा न सकी।
जो कली खिलेगी जहाँ, खिली,
जो फूल जहाँ है,
जो भी सुख
जिस भी डाली पर
हुआ पल्लवित, पुलकित,
मैं उसे वहीं पर
अक्षत, अनाघ्रात, अस्पृष्ट, अनाविल,
हे महाबुद्ध!
अर्पित करती हूँ तुझे।
उपरोक्त कविता हमें एक नए जीवन दर्शन की ओर ले जाने वाली कविता है . हम कैसे बिना क्षति पहुचाये किसी कलि को अपने आराध्य को अर्पित कर सकते हैं हम इस कविता के द्वारा जन सकते हैं .
बहुत ही महत्वपूर्ण लेख है। अज्ञेय को समझने का एक बढ़िया जरिया है यह लेख उनकी कविताओं को समझने के लिए एक दृष्टि देता है
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार
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