दार्शनिक एवं मनोवैज्ञानिक भावों का आख्यान-शेखरः एक जीवनी

शेखर :एक जीवनी की मनोवैज्ञानिकता-

बाल मनोविज्ञान , युवावस्था की जिज्ञासा और मनोसंवेग, सामाजिक जीवन का अस्वीकार, 

शिल्प विधान - पूर्व दीप्ति शैली, मनोविश्लेषण शैली, एकालाप ,आत्म कथात्मक शैली.

भाषा - मनोविश्लेषण परक, काव्यात्मक, संवाद परक और गहन विचारात्मक भाषा. अज्ञेय शब्दों से कम उसकी भंगिमा और बनावट पर ज्यादा जोर देते हैं.


हिन्दी कथा साहित्य के इतिहास में जीवन जगत के बाह्य यथार्थ के साथ-साथ मानव मन के अन्तर्जगत के आलोड़न-बिलोड़न को चित्रित करने की प्रक्रिया का आरम्भ जैनेन्द्र ने किया। सामाजिक घटनाओं और परिस्थितियों का प्रभाव हमारे जीवन के साथ ही हमारे मन पर भी पड़ता है। मानव मन की विविध स्थितियों का गहन पड़ताल और उसको साहित्यिक फलक पर उभारने की दृष्टि से हिन्दी के मनोवैज्ञानिक उपन्यासों का विशेष महत्व है। मनोवैज्ञानिक तत्व तो हिन्दी के अधिकांश उपन्यासों में मौजूद है; लेकिन समग्रता मे पात्रों के मन की गहन पड़ताल और उसे औपन्यासिक कथावस्तु के रूप में प्रस्तुत करने की परम्परा का निर्वहन मनोवैज्ञानिक उपन्यासों में देखने को मिलता है। मनुष्य के अन्तर्जगत को चित्रित करने की परम्परा का आरम्भ जैनेन्द्र ने किया और उस परम्परा को आगे ले जाने का कार्य अज्ञेय ने किया।

सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्सायन ‘अज्ञेय’ हिन्दी साहित्य के विरले एवं विशिष्ट रचनाकार हैं। कवि, कथाकार, निबंधकार एव पत्रकार के रूप में आपका योगदान सराहनीय है। 1943 में तारसप्तक का प्रकाशन कर हिन्दी कविता के क्षेत्र में प्रयोगवाद का प्रवर्तन किया। अज्ञेय की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि उनका व्यक्तित्व एवं कृतित्व नवाचार के प्रति हमेशा उन्मुख रहा है। भाव, भाषा, भंगिमा संबंधी नये प्रयोग उनकी रचनाओं में देखने को मिलती है। कविता के क्षेत्र में प्रयोगवाद का प्रवर्तन कर अज्ञेय ने हिन्दी कविता को नयी दिशा देने का ऐतिहासिक कार्य किया, और साथ ही साथ मनोवैज्ञानिक उपन्यासों के क्षेत्र में नये-नये प्रयोगों द्वारा भाव एवं भाषा को नीवनता प्रदान किया।

भाव, भाषा और शिल्प के क्षेत्र में नयें प्रयोगों द्वारा अज्ञेय ने साहित्य में नये प्रतिमान स्थापित किये। प्रयोगवाद के प्रवर्तन द्वारा ‘अज्ञेय’ ने कविता के क्षेत्र में बिम्ब, प्रतीक और भाषा को नवीनता प्रदान किया अज्ञेय भाषा के सजग प्रयोक्ता हैं। हिन्दी उपन्यास साहित्य मे ‘अज्ञेय’ के उपन्यास अपने आप में प्रतिमान है। शेखरः एक जीवनी से आरम्भ होने वाली रचना यात्रा अपने- अपने अजनबी पर समाप्त होती है। ‘अज्ञेय’ के सभी उपन्यास भाव और भाषा की दृष्टि से एक-दूसरे के पूरक है। शेखरः एक जीवनी  दो खण्डों में रचित उपन्यास है। इसके पश्चात् नदी के द्वीप का प्रकाशन हुआ, जिसे हम शेखरः एक जीवनी के अगले भाग के रूप में जान सकते हैं। मानव मन की पीड़ा, वेदना एवं संवेदना के चित्र इन उपन्यासों में देखने को मिलते हैं। ‘शेखरः एक जीवनी’ की भूमिका में अज्ञेय ने वेदना के संबंध में लिखा है-‘‘वेदना में एक शक्ति है, जो दृष्टि देती है। जो यातना में हैं, वह द्रष्टा हो सकता है।’’

‘शेखरः एक जीवनी,  जो मेरे दस वर्ष के परिश्रम का फल है, दस वर्षो में अभी कुछ देर है, लेकिन जीवनी भी तो अभी पूरी नही हुई। घनीभूत वेदनाको केवल एक रात में देखे हुए अपेपवद को शब्द-बद्ध करने का प्रयत्न है।’’

‘अज्ञेय’ हिन्दी साहित्य के एक ऐसे साहित्यकार हैं, जिन्होंनें भाषा को साधने का कार्य किया। भाव और भाषा के स्तर पर अज्ञेय एक सफल प्रयोगक्ता, विचारक हैं। शब्दों का सर्वाधिक सर्जनात्मक एवं संभावनापूर्ण प्रयोग ‘अज्ञेय’ के पहले उपन्यास ‘शेखरः एक जीवनी’ में देखने को मिलता है। भाषा और शिल्प दोनों स्तरों पर नयेपन के कारण यह उपन्यास अपने आप में विशिष्ट है। अपनी पुस्तक ‘सामाजिक यथार्थ और कथा भाषा’ में कथा साहित्य की भाषा पर विचार करते हुए ‘अज्ञेय’ ने लिखा है कि - ‘‘पूरा समाज जिस भाषा के साथ जीता है, उसमें और उसी के साथ जीते हुए अगर हम उस जीवन सन्दर्भ को पहचानते हैं और उस भाषा में रचना करते हैं तो हमारा समाज भी रचनाशील हो सकता है। ................भाषा हमारी शक्ति है, उसको हम पहचानें, यही रचनाशीलता का उत्स है, व्यक्ति के लिए भी और समाज के लिए भी।’’

भाषा और समाज के जिन रचनात्मक संबंधो पर ‘अज्ञेय’ ने जो विचार किये है; उसका निर्वाह उनके कथा साहित्य में देखने को मिलता है। भाषा के स्तर पर जो प्रयोग जैनेन्द्र ने आरम्भ किये है, भाषा एवं शब्दें की भंगिमा और बुनावट के स्तर पर उसे आगे ले जाने का कार्य अज्ञेय ने बखूबी किया।

‘‘षेखर: एक जीवनी’ में शेखर के अन्तःमन एवं अन्तश्चेतना का अंकन अज्ञेय ने किया है। शेखर अपनी जीवनी लिखकर एक तरह से ऋणमुक्त होना चाहता है, क्योंकि जिस शशि को वह अपने समूचे अंतर्मन से प्यार करता था, उसकी इच्छा उसे एक लेखक के रूप में देखने की थी। शेखर का विकास एक विद्रोही के रूप में हुआ है। उसके अन्दर बैठी यह विद्रोह की प्रवृŸिा ही उसे ब्रिटिश साम्राज्य के विरूद्ध संगठित आतंकवादी संगठन से जोड़ देती है। एक क्रान्तिकारी के रूप में अपने जीवन की सार्थकता के कारणों को तलाशता है, और अपने स्वातत्रंय की खोज करता हैं। समाज, व्यक्ति और अपने निजी जीवनानुभवों के बीच अपनी जीवन की स्थितियों पर चिन्तन करता है, और चिन्तन करते हुए पूर्व दीप्ति शैली में जीवन का प्रत्यावलोकन करता है-

‘‘मै अपने जीवन का प्रत्यावलोकन कर रहा हूँ, अपने अतीत जीवन को दुबारा जी रहा हूँ। मैं जो सदा आगे ही देखता रहा, अपनी जीवन-यात्रा के अन्तिम पड़ाव पर पहुँचकर पीछे देख रहा हूँ कि मैं कहाँ से चलकर, किधर-किधर भूल-भटककर, कैसे-कैसे विचित्र अनुभव प्राप्त करके यहाँ तक आया हूँ। और तब दीखता है कि मेरी भटकन में भी एक प्रेरणा थी, जिसमें अन्तिम विजय का अंकुर था, मेरे अनुभव-वैचिन्न्य में भी एक प्रेरणा थी, जिसमें अन्तिम विजय का अंकुर था, मेरे अनुभव-वैचिन्न्य में भी एक विशेष रस की उपभोगेच्छा थी, जो मेरा निर्देश कर रही थी। और जीवन-यात्रा के पथ में जो पहाड़, तराइयाँ, नदी-नाले, झाड़-झंखाड़, आँधी-पानी आये उन सब में मेरे और केवल मेरे संबंध में एक ऐक्य था, जिसका ध्येय था किसी विशेष काल में, विशेष परिस्थिति में, विशेष स्थान पर, विशेष साधनों और उपायों से, मेरे जीवन का विशेष रूप से समापन, जिससे उसे अपनी सिद्धि, अपनी-अपनी सफलता और अपनी सम्पूर्णता प्राप्त हो जाये.......................अब मैं अधूरा हूँ..............पर मुझे कुछ भी न्यूवता नही है, अपूर्ण हूँ, पर मेरी सम्पूर्णता के लिए कुछ भी जोड़ने का स्थान नही है।’’

उपरोक्त पंक्तियों में अज्ञेय ने पूर्वदीप्ति शैली का प्रयोग करते हुए शेखर के मानस में स्थित विविध मनोदशाओं का वर्णन किया है। शेखर के मनोजगत का चित्र प्रस्तुत करते हुए कथाकार मस्तिष्क में आने वाली विविध स्थितियों का अंकन किया है। शेखर के जीवन में अनेक उतार-चढ़ाव आये और उन्हें शब्दबद्ध करने का कार्य करते हुए अज्ञेय की भाषा कहीं-कहीं साहित्यिक तो कहीं-कहीं दार्शनिक हो गयी है। दार्शनिक ढंग से घटनाओं का विवेचन एवं साहित्यिकता अज्ञेय की भाषा की विशेषता है। दार्शनिकता के कारण ही शेखर कहता है- मेरी भटकन में भी प्रेरणा थी, जिसमें अन्तिम विजय का अंकुर था।

‘शेखर: एक जीवनी’ उपन्यास के माध्यम से अज्ञेय जिस कथावस्तु को प्रस्तुत कर रहे थे, उसके निमिŸा मनोवैज्ञानिक एवं दार्शनिक भाषा की आवश्यकता देखने को मिलता है। अधूरा होने पर भी न्यूवता न होना, अपूर्ण होने पर भी पूर्णता के लिए कुछ शेष नहीं; यही भाव शेखर के दार्शनिक चिन्तन को द्योतित करता है। ‘शेखरः एक जीवनी’ में अज्ञेय ने वह जीवन दर्शन प्रस्तुत किया जो हमें जीवन-जगत की पीड़ा के बोध से नयी जीवन दृष्टि प्रदान करता है। शेखरः एक जीवनी के प्रथम भाग में चार खण्ड है, जिनके शीेर्षक हैं- उषा और ईश्वर, बीज और अंकुर, प्रकृति और पुरूष, पुरूष और परिस्थिति। शेखरःएक जीवनी- के दूसरे भाग के खण्ड है- पुरूष और परिस्थिति, बन्धन और जिज्ञासा, शशि और शेखर, धागे-रस्सी, रस्सियाँ, गुन्झर।

शेखरः एक जीवनी के खण्डों के नाम से ही स्पष्ट है रचनाकार जीवन के विविध घटकों का विश्लेषण दार्शनिक दृष्टि से प्रस्तुत कर रहा है। दर्शन हमारे अन्तः एवं बाह्य जगत को गहनतर स्तर पर प्रभावित करता है। हृदयस्थ भावों का उद्दीन, आलम्बन और आश्रय सामाजिक प्रभावों के परिणाम स्वरूप ही उत्पन्न होते हैं। सामाजिक विद्रोह की स्थितियों पर विचार करते हुए अज्ञेय कहते हैं कि-

‘‘मुझे विश्वास है कि विद्रोही बनते नहीं उत्पन्न होते हैं, विद्रोहबुद्धि, परिस्थितियों से संघर्ष की सामथ्र्य, जीवन की क्रियाओं से, परिस्थितियों के घात-प्रतिघात से, नही निर्मित होती। वह आत्मा का कृत्रिम परिवेष्टन नही हे, उसका अभिन्नतम अंग है। मैं नही मानता कि दैव कुछ है, क्योंकि हममें कोई विवशता, कोई बाध्यता है तो वह बाहरी नहीं भीतरी है। यदि बाहरी होती, परकीय होती, तो हम उसे दैवीय कह सकते, पर वह तो भीतरी है, हमारी अपनी है, उसके पक्के होने के लिए भले ही बाहरी हों। उसे हम व्यक्तिगत नियति च्मतेवदंस क्मेदपजल कह सकते है।’’

उपरोक्त पंक्तियों में अज्ञेय ने मानवीय प्रतिक्रियाओं का दार्शनिक विवेचन किया है। परिस्थितियांे का घात-प्रतिघात और जीवन स्थितियाँ ही बाह्य कारक है, लेकिन उसके प्रभाव की निमिŸा में हमारी व्यक्तिगत नियति और आन्तरिक मनःस्थिति का विश्ेाष महत्व है। अज्ञेय मानवमन के गहनŸार स्तरों में उतरकर उसे कथा फलक पर उभारने की अद्भूत क्षमता से सम्पन्न कथाकार हैं। शेखर के क्रान्तिकारी व्यक्तित्व का प्रस्तुतीकरण शेखरः एक जीवनी में हुआ है। अज्ञेय उसके क्रान्तिकारी व्यक्तित्व के निर्मिति के कारकों को स्पष्ट करते हैं- ‘‘क्रान्तिकारी की बनावट में एक विराट, व्यापक प्रेम की सामथ्र्य तांे आवश्यक है ही साथ ही उसमें एक और वस्तु नितांन्त आवश्यक, अनिवार्य है- घृण्णा की क्षमता; एक कभी न मरने वााी, जल डालने वाली, घोर मारक, किन्तु इतना सब होते हुए भी एक तटस्थ, सात्विक घृणा की क्षमता, यानी ऐसी घृणा जिसका अनुभव हम अपने सचेतन मस्तिष्क से करते हैं।’’

https://youtu.be/tbh5-THPduA

उपरोक्त पंक्तियों में शेखर की मानसिकता के निर्मिति के कारकों का विश्लेषण करते हुए अज्ञेय ने सचेतन मनोजगत के महत्व को रेखांकित किया है। क्रांन्तिकारी के लिए सात्विक घंणा आवश्यक है। जो कभी न मरने वाली होते हुए तटस्थ हो। घृणा के सात्विकता पर विचार करने वाले अज्ञेय विरले कथाकार हैं। अपने उपन्यासों के माध्यम से अज्ञेय एक विचार परम्परा और दर्शन हमारे सम्मुख रखते हैं, इस प्रस्तुति में उनकी भाषा प्रांजल, गंभीर एवं विवेचन पूर्ण रूप् ग्रहण करती है। अज्ञेय दुःख और पीड़ा को विशेष स्थान देते हैं। दुःख को लेकर उनका विशेष दर्शन है, जिसे वह अपनी कविता के माध्यम से शब्दबद्ध करते हुए लिखते हैं कि-

‘दुःख सबको माँजता है

और

चाहे स्वयं सबको मुक्ति देना वह न जाने, किन्तु

जिनको माँजता है

उन्हें यह सीख देता है कि सबको मुक्त रखें।’


शेखर के व्यक्तित्व में दुःख और पीड़ा का बोध देखने को मिलता है। अज्ञेय की यह दृढ़ मान्यता है कि दुःख मुक्तिदाता है, और इसका उद्भव रहस्यपूर्ण ही होता है। दुःख, पीड़ा, घृणा, विद्रोह, प्रेम और समर्पण जैसे मनोभावों के साथ-साथ बल मनोविज्ञान का भी वर्णन अज्ञेय ने अपने इस उपन्यास में किया है। बालक शेखर बाग में जाता है, लेकिन जब वह जंगल और बाग दोनों की तुलना करता है तब उसे जंगल ज्यादा प्रीतिकर लगता है-

एक दिन वह संध्या -समय एक बाग में गया। उस समय वह मानो पक्षियों से भर रहा था, और वे सब अनियंत्रित वाणियों से अपने प्राणों का आह्लाद कर रहे थें- ‘‘कितना मधुर आह्लाद! बालक ने पूछा’’,‘‘क्या यही जंगल है’’...............उत्तर मिला ‘‘नही, यह बाग है।’’

‘‘जगंल क्या होते है?’’

‘‘वे भी ऐेसे ही होते हैं, बहुत बड़े-बड़े बाग-से। पर जैसे इसमें पेड़ और फूल सजाकर लगाये हैं, ऐसे नहीं होते, अपने-आप उलटे-सीधे लगते है।’’

जंगल के बारे में जानकर बालक शेखर का मन उस उन्मुक्त परिवेश के प्रति आकर्षित हो जाता है। वह सोचता है कितना उन्मुक्त होगा वह स्थान-जहाँ सब कुछ तो स्वतंत्र होगा ही, ये पौधे भी स्वच्छन्दता से उग-फूल-फल सकेंगें................और तब उसकी कल्पना के स्वर्ग को एक मूर्त आकार भी मिला, और एक नाम भी मिला-जंगल.....।

बाग और जंगल के प्रतिमान से कथाकार ने स्वतंत्र और सामाजिकताओं से आबद्ध जीवन स्थितियों को प्रस्तुत किया है। शेखर अपने अनुभव से यह जान चुका है कि वह जिस नगर में रह रहा है, वह उसके लिए जंगल नही हो सकता है, और आज भी वह इस पिंजरे में बद्ध होकर वनों का ध्यान करता है, जहाँ.......। वह अपनी तुलना तोते से करते हुए कहता है- ‘‘उस तोते की तरह, वह भी पंख नहीं फड़फडाता कि पिंजरे से चोट न लगें क्योंकि वह भी अनुभव सीख चुका है कि चोट लगती है। पर क्या आत्मा भी बद्ध है, क्या उसको भी चोट लग सकती है, क्या वह भी पंख नहीं फड़फड़ा सकती?’’

उपरोक्त पंक्तियों में अज्ञेय बड़े ही सहज शब्दों में आत्मा और देह के बन्धन की स्थिति को स्पष्ट कर दिया है। अन्तिम पंक्ति में अज्ञेय प्रश्न करते हैं कि क्या आत्मा बद्ध है, क्या उसे चोट लग सकती है। भाषा के माध्यम से गूढ़ मनोभावों और दार्शनिक विचारों को सहज ही हमारे सम्मुख प्रस्तुत कर दिया है। प्रकृति के घटकों को गहन अवलोकन और सूक्ष्म निरीक्षण शेखर के व्यक्तित्व का अभिन्न अंग रहा है। शेखर प्रकृति का सानिध्य पाकर एक विशेष भाव भूमि में अपने आप को पाता है। वह रहस्य, रोमांच अनुभव करता है, जिसे निम्नलिखित पंक्तियों में देख सकते हैं- ‘‘धीरे-धीरे उसके ऊपर एक सम्मोहन-सा छा गया, एक मूर्छा-सी, उसे लगा, उसके पास-उसके पास नहीं, उसके भीतर, उसके सब ओर, कुछ आया है, कुछ जिसका वह वर्णन नही कर सकता, लेकिन जो बहुत सुन्दर है, बहुत विशाल, बहुत पवित्र........इतना पवित्र कि शेखर को लगा, वह उसके स्पर्श के योग्य नहीं है, वह मैला है, मैल में आवृत है, छिपा हुआ है................उसी सम्मोहन में उसने एक-एक करते अपने सब कपड़े उतार डाले, नीचे फेंक दिए, और आँखें मूँदकर खड़ा हो गया...................आकाश के समाने और उस पवित्र के, उस पवित्र से परिपूर्ण, उसके स्पर्श से रोमांचित.......

वह क्या था? ईश्वर? प्रकृति? सौन्दर्य? शैतान? दबी वासना? ईश्वर? उसे नही मालूम। पर उसने वह संग, वह कैवल्य, फिर कभी नहीं प्राप्त किया.....।’’

भाव निसंग और अनुभूति अकथनीय होने पर भी अज्ञेय में भावों को सम्प्रेषित करने की अद्भूत क्षमता है। डल झील को देखते हुए जो अनुभूति शेखर को आजीवन फिर से नहीं प्राप्त होती है। जो अनुभूति उपरोक्त पंक्तियों में अज्ञेय ने प्रस्तुत किया है वह सब कुछ भुला देने वाली है। ‘‘शेखरः एक जीवनी’’ औपन्यासिक भाषा के स्तर पर मील का पत्थर बनने वाला उपन्यास है। इसके दोनों खण्डों में अज्ञेय ने मनोजगत के यथार्थ को प्रस्तुत करते हुए जीवन जगत के विविध दार्शनिक पक्षों को भी वर्णित किया है। कथावस्तु की व्यापकता संवेदन का नवाख्यान प्रस्तुत करते हुए नया शिल्प प्रयोग में लाते हैं ‘‘शेखरः एक जीवनी’’ उपन्यास के ढाँचे में अज्ञेय की युक्ति है। जिसकी व्याख्या यथा स्थान कथाकार ने की है। उपन्यास के अन्त की ओर बढ़ते हुए शेखर/अज्ञेय ने स्पष्टीकरण भी दिया है-

‘‘किन्तु क्या मैं ऐसे ही आत्मकथा लिख रहा हूँ? क्या यह आत्मप्रकाशन है? क्या अब भी मेरा मर्म नहीं कहता कि जो मेरा है जो सारभूत है, जिसमें में सिक्त और अभिसिक्त हूँ, उसे छिपा लो। क्या अब भी मैं नहीं चाहता कि जो मात्र मेरे जीवन में महत्व का है और इसलिए ही रखूँः क्योंकि प्रकाशन तो विभाजन है; सम्पŸिा का सहभाग हो सकता हैः पर अपने-आपका सहभाग  मैं कैसे कर सकता हूँ..........फिर भी मैं आग्रहपूर्वक अपने को खोलता हूँ, क्योंकि यह आत्मकथन नहीं है, केवल स्वीकार है, साक्षी है, आत्म साक्षत्कार है।’’

मूलतः ‘‘शेखरः एक जीवनी’’ एक आत्मसाक्षात्कार है, जीवन, जगत, मनोजगत और उन सभी वास्तविकाओं का भी जिसे शेखर ने अपने जीवन में जीया और अनुभव किया है। शेखर के अनुभूतियों की व्यापकता उसके मनोजगत को हमारे समक्ष प्रस्तुत कर देती है। फाँसी, क्रांन्ति, प्रेम, आकर्षण और आत्मरति उसके व्यक्तित्व में अनुस्यूत हैं। शेखर अपने आप में प्रतीक है, जिसकी प्रतीति कहीं न कहीं सहज ही हमारे मन में भी होती है।

‘‘शेखर: एक जीवनी’’ आत्मकथात्मक शैली में लिखित आख्यान है, जिसमें शेखर के मनोजगत का यथार्थ अज्ञेय ने बहुत ही गहन स्तरों पर उतरकर प्रस्तुत किया है। ‘‘शेखरः एक जीवनी’’ मनोवैज्ञानिक भाव जगत को प्रस्तुत करते हुए अज्ञेय भाषा के परम्परागत ढाँचे से परे जाकर प्रयोग किया है। मनोजगत का यथार्थ और दार्शनिक जीवन दृष्टि का समावेश इस उपन्यास को विशिष्ट बनाता है। भाषा और भाषा-भंगिमा के सफल प्रयोग की जो परम्परा जैनेन्द्र ने आरम्भ की थी, उसे आगे ले जाने का कार्य अज्ञेय ने किया। मनोवैज्ञानिक उपन्यासों में भाषा के बनावट और बुनावट का विशेष महत्व होता है, जिसका निर्वहन ‘‘शेखरः एक जीवनी’’ में देखने को मिलता है।



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