मनोहर श्याम जोशी कृत कसप की कथा भाषा
हिन्दी उपन्यासों की परम्परा में जिन उपन्यासकारों ने औपचारिक भाषा एवं शिल्प के स्तर पर व्यापक प्रयोग किये हंै, उनमें मनोहर श्याम जोशी का नाम प्रमुखता से लिया जाता है। मनोहर श्याम जोशी के उपन्यासों में विषय-वस्तु के साथ-साथ शिल्प एवं भाषा सभी स्तरों पर नवाचार देखने को मिलता है। जैनेन्द्र की संवेदना, अज्ञेय की प्रयोगधर्मिता और रेणु जैसी भाषा की आंचलिकता मनोहर श्याम जोशी के उपन्यासों की भाषा में एक नये तरह के कथावातायन का निर्माण करते है। मनोहर श्याम जोशी के उपन्यासों की भाषा में एक नये तरह का ठसक और देशीपन देखने को मिलता है। इनके प्रमुख उपन्यास है- कुरु-कुरु स्वाहा, कसप, हरिया-हरकुलिस की हैरानी और हमजाद। ‘कुरु-कुरु स्वाहा’ से मनोहर श्याम जोशी उपन्यास लेखन की ओर आए। यह एक प्रयोगशील उपन्यास है। अपने व्यापक प्रयोगशीलता के कारण यह उपन्यास बहुत चर्चित हुआ। अपनी प्रयोगशीलता के कारण रचनाकार उपन्यास के स्वीकृत और उपलब्ध ढाँचें को तोड़कर नये तरह के अंदाज में अपनी कथावस्तु को प्रस्तुत करता है।
मनोहर श्याम जोशी अपने व्यक्तित्व एवं कृतित्व दोनों मिलाकर अपने कथा साहित्य को एक नये कलेवर में ढालते हैं। ‘कसप’ आपके द्वारा रचित दूसरा महत्वपूर्ण उपन्यास है। इसकी पृष्ठभूमि कुमाऊँनी जीवन स्थितियाँ है। ‘कसप’ मूलतः एक प्रेमकथा के रूप में लिखित उपन्यास है। एक प्रेमकथा के साथ-साथ इसमें एक युवक के जीवन के अनेकानेक संघर्षो को भी स्थान दिया गया है। कुमाऊँनी पृष्ठभूमि पर लिखित इस उपन्यास में भाषा एवं शिल्प संबंधी नवीनता देखने को मिलती है। भाषा में कुमाऊँनी अंचल की भाषा को उपन्यासकार मुखरता से अपनाया है, कहीं - कहीं शब्दों के अर्थ भी दिये गए हंै, जिससे कथा के आस्वादन में पाठक को व्यवधान ना हो। उपन्यास के आरम्भ में ही जोशी जी ने अपना वक्तव्य देकर भाषा सम्बन्धी प्रयोगों का संकेत दे दिया हैः-
‘‘उपन्यास में जहाँ भी कुमाऊँनी शब्दों का प्रयोग हुआ है, उनका अर्थ वही दे दिया गया है। इसमें कुछ संवादों में जो कुमाऊँनी हिन्दी प्रयुक्त हुई हे, वह पाठक को थोड़े अभ्यास से स्वयं समझ में आ जायेगी। यह हिन्दी, कुमाऊँनी का ज्यों-का-त्यों अनुवाद करते चलने से बनती है और कुमांऊँ में इसी का आमतौर से व्यवहार होता है।’’1
उपन्यास के आरम्भ मंे कथाकार भाषा के प्रति अपना आग्रह स्पष्ट कर देता है। आंचलिक भाषाई कलेवर में प्रस्तुत प्रेमकथा को रचनाकार ने समग्रता में प्रस्तुत किया है। भाषा एवं संवाद में अभिनव प्रयोग के साथ-साथ कथा संप्रेषण की परम्परागत शैली का प्रयोग भी इस उपन्यास में देखने को मिलता है।
‘कसप’ उपन्यास का शीर्षक, कुमाऊँनी भाषा का शब्द है, जिसका अर्थ है- ‘क्या जाने’। यह बहुत ही दार्शनिक एवं चुनौती पूर्ण शब्द है। क्या जाने या तुम स्वयं बूझो। यह उपन्यास की विषय-वस्तु के अनुरूप रचनाकार ने शीर्षक का चयन किया है। यह शीर्षक अपने -आप मे विचित्र है। विचित्र होने के साथ-साथ लाक्षणिक भी है। जो विषय-वस्तु के अनुरूप है और पाठक या आस्वादक को उपन्यास पढ़ने के लिए प्रेरित करता है। समय-समय पर लेखक, स्चयं पाठकों के समक्ष प्रस्तुत होकर रचनात्मक और संप्रेंषण को प्रभावी बना देता है।
‘कसप’ देशीपन अंदाज में प्रस्तुत मध्यवर्गीय घरेलू जीवन में घटित प्रेम कथा है। इस उपन्यास के सन्दर्भ में आचार्य परमानन्द श्रीवास्तव का कथन है- ‘‘किशोर प्रणय कथा का ऐसा सर्जनात्मक उपयोग तुर्मनेव जैसे लेखकों के रचनात्मक मानस की याद दिलाता है। ‘बेबी’ जैसी नायिका (खिलन्दड़-कलड़कैंधी) हिन्दी कथा साहित्य के अविस्मरणीय चरित्रों में गिनी जायेगी। डी0डी0 का लाटापन व्यक्तित्व के रूप में एक अनोखा अनुभव है। कुमाऊँनी जिन्दगी के खास स्थानिक आंचलिक परिवेश में इनकी उपस्थिति एक विलक्षण प्रसंग हैं कसप कर प्रयोगधर्मिता बांधती है।’’2¬ (आंचलिक रंग में जीवित एक प्रेमकथा के बहाने)।
‘कसप’ की प्रयोगधर्मिता उसके देशीपन में निहित है। अंचल के चटक रंगों को कथा फलक पर उभारने के निमिŸा जिस भाषा की आवश्यकता थी, उसे कथाकार ने बखूबी गढ़ा है। भाषा में सामाजिक सन्दर्भों एवं परिवेश का विशेष निर्वाह देखने को मिलता है। रचनाकार प्रेमकथा प्रस्तुत करते हुए प्रेम के वैज्ञानिक सूत्रों को तलाशता है, लेकिन वह पाता है कि प्रेम विशुद्ध मन का विषय है- ‘‘अगर भावनाओं के वैज्ञानिक सूत्र बन गये होते, अगर भावनाओं का जैव रसायन स्पष्ट हो चुका होता, या अगर आप और मैं मान चुके होते मन से कि प्रेम को वही जानता है जो समझ गया है कि प्रेम समझा नहीं जा सकता, तो मुझे यह सब झंझट नही करना होता। सचमुच ढाई आखर से काम चल जाता।’’3
वास्तविकता यही है कि प्रेम को न तो समझा जा सकता है, न ही उसके सूत्र तलाशे जा सकते हैं। यह एक अमूर्त भावना है, जिसे ढाई आखर में तो कह सकते हैं, लेकिन इस भाव की गहराई को अभिव्यक्त करना अत्यन्त कठिन है। नायक-नायिका का प्रेम एक आंचलिक परिवेश में पनपता है, लेकिन इसका प्रसार निरन्तर व्यापक होता जाता है। नायक फिल्म की दुनिया से है इसका प्रभाव उपन्यास की भाषा में देखने को मिलता है। हमारा नायक इसी ऊहापोह में कि दूसरा सीन शुरू होता है। इतने में दबे-पाँव आयी है कोई कि आहट तभी हुई जब वह एक सीढ़ी ही ऊपर थी। नायक ने पलटकर एक झलक देखी है और फिर झटपट क्षितिज निहारने में जुट गया है मानों यही उसका पुश्तैनी पेशा हो। आगे नायक-नायिका का संवाद होता है-
‘‘चहा।’’
‘‘रख दीजिए।’’
‘‘रख दी। पी लो।’’
‘‘पी लूँगा।’’
‘‘कब।’’
‘‘थोड़ी देर में।’’
‘‘ठण्डी हो जायेगी।’’
‘‘मैं गरमागरम पीता भी नही।’’
‘‘फूँक मारकर ठण्डी कर दूँ भाऊ?’’4
इतने वार्तालाप के पश्चात नायिका नायक के पास बैठ जाती है। उक्त संवाद में ‘चहा (चाय)’ एवं ‘भाऊ (बच्चे)’ देशी शब्द हैं। जहाँ भाव गहरे होते है वहां भाषा अपने आप ही अपने मूल रूप में आ जाती है। ऐसे उदाहरण उपन्यास में सर्वत्र देखने को मिलते हंै। उपन्यास की कहानी हिल-स्टेशन नैनीताल में शुरू होती है। जो क्रमशः बम्बई, बरेली होते हुए अल्मोड़ा तक पहुँचती है।
औपन्यासिक भाषा की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि वह उस परिवेश को कितने समर्थ रूप से प्रस्तुत कर रही है। मनोहर श्याम जोशी ने इस उपन्यास में शब्दों के माध्यम से परिवेश का पाठक के समक्ष मूर्त रूप में प्रस्तुत कर देता है- ‘‘ट्रेन दिल्ली जा रही है। बगैर रिजर्वेशन है डी0डी0। सीट पर नहीं, अपने ही सामान पर बैठा हुआ है वह। दरवाजे के पास। खिड़की के बाहर झांकते हुए। सैरे दौड़ते हुए आते हैं उससे मिलने, दौड़ते हुए पीछे छोड़ जाता है। वह सैरो को। उसकी एक मंजिल है, जो मंजिल नही हैं, पड़ाव है। वह बम्बई जा रहा है, घर नही।’’5
उपन्यास के माध्यम से रचनाकार जीवन का व्यापक चित्र प्रस्तुत करता है। जिसमें अन्तः एवं बाह्य जगत का चित्रण दृष्टिगत होता है। दिल्ली जाते हुए रचनाकार ने डी0डी0 का जो चित्र प्रस्तुत किया है, उसमें डी0डी0 की मनः स्थिति का भी चित्र देखने को मिलता है। ‘‘वर्षो-वर्षो बैठा रहूँगा में इसी तरह इस गाड़ी में जिसका नाम आकांक्षा है। वर्षो-वर्षो अपनी ही पोटली पर, मैले फर्श, दुखते कूल्हों, सो जाती टाँगो पर बैठा रहूँगा मैं। संघर्ष का टिकट मेरे पास होगा, सुविधा का रिजर्वेशन नहीं।’’6
जीवन के विस्तृत चित्र का दायरा मनुष्य के अन्तः मन से गुजरता है। संघर्ष का टिकट होना और सुविधा का रिजर्वेशन न होना, डी0डी0 की मनःस्थिति को सम्प्रेषित करता है। नायक के मन में नायिका के प्रति अगाध आकर्षण है। इसी आकर्षण की आकाक्षा में वह वर्षो-वर्ष बैठे रहने और नायिका के योग्य बनने की जिद् में है। जिसे मनोहर श्याम जोशी ने शब्दों के माध्यम से मूर्त किया है।
लोक एवं अंचल की कथा को प्रस्तुत करते हुए हिन्दी उपन्यास में शिल्प एवं भाषा में विविध प्रयोग देखने को मिलता है। भाषा के माध्यम से अंचल के यथार्थ को संप्रेषित करने के निमिŸा हिन्दी कथा साहित्य में आंचलिक प्रविधि एवं भाषा का प्रयोग देखने को मिलता हैं। इस भाषा प्रयोग की परम्परा का आरम्भ व्यापक स्तर पर आचंलिक कथाकार फणीश्वर नाथ रेणु ने किया। आचंलिक प्रविधि का प्रयोग ऐसे उपन्यासों में भी देखने को मिलता है, जिसे हम आंचलिक उपन्यास की श्रेणी में नही रख सकते हैं। ‘कसप’ में मनोहर श्याम जोशी ने भी कुमाऊँनी अंचल की कथा को प्रस्तुत करते हुए आचंलिक प्रविधि का प्रयोग किया है।
किसी भी अंचल की विशेषता उस अंचल के रीति-रिवाजों एवं भाषा में ही रचती-बसती है। मनोहर श्याम जोशी ने ‘कसप’ उपन्यास की भाषा में कुमाऊँनी शब्दों का प्रयोग बहुतायत से किया है। समीक्ष्य उपन्यास में ऐसें भी उदाहरण देखने को मिलते हैं, जिनमें पारम्परिक रिवाजों का वर्णन करते हुए कुमाऊँनी और हिन्दी हिल-मिल गयी है।
‘बारात को विदा करने के बाद जब घराती लोग ‘कुँवर-कलेवा’ के लिए बनाये गये पूरी सिंगल-गुटके-रायता-चटनी को लंच का दर्जा दे रहे थे तब बेबी ने डी0डी0 को एक पूरी दी।’7
उपरोक्त पंक्तियों में प्रयुक्त शब्दों कुँवर-कलेवा (शादी की अगली सुबह दिया जाने वाला भोज) सिंगल (सूजी की जलेबी नुमा पकवान), गुटके (आलू की सूखी सब्जी) का अर्थ जोशी जी नीचे पाद-टिप्पणी के माध्यम से स्पष्ट करते है। भाषा संबधी ऐसे प्रयोग विषय-वस्तु के सम्प्रेषण का अभिन्न अंग बनकर इस उपन्यास में प्रयुक्त हुए हैं। कुँवर-कलेवा का सन्दर्भ उस अंचल की संस्कृति का हिस्सा है, जो इस उपन्यास का अभिन्न अंग है। इन्हीं सन्दर्भो को दृष्टि में रखते हुए रामविलास शर्मा ने लिखा हैं कि- ‘‘भाषा स्वयं संस्कृति नही है, वह संस्कृति का वाहन मात्र है।’’8
अंचल या लोक की जीवन्तता वहाँ के रिवाजों और गीतों में बसती है। हास-परिहास वैवाहिक कार्यक्रमों का अभिन्न अंग है। जो सर्वाधिक लोकगीतों में दृष्टिगत होती है। अंचल की परम्परा को जीवन्तता प्रदान करते हुए कथाकार ने लोक परम्पराओं और लोकगीतों को भी इस उपन्यास में बखूबी पिरोया है-
‘तेरो जूठो मैं नी खाँछ्यूँ,
माया ने खवायौ सुआ।’
तेरा जूठा मैं नहीं खाता,
प्रीत ने खिलवा दिया, सुग्गी!’ 9
यह एक कुमाऊँनी गीत है। जो नायक विवाह में आयोजित होने वाली संगीत मण्डली में अपनी नायिका को सुना रहा है। जिसका अर्थ है तेरा जूठा मैं न खाता लेकिन तेरी प्रीति और माया ने मुझे खिला दिया। इस उपन्यास में ऐसे प्रसंग पाठक या आस्वादक को कही भी खटकते नहीं, कहीं-कहीं कथाकार ने अर्थ संकेत देकर अर्थ स्पष्ट किया है तो कहीं-कहीं कथा-प्रसंग के अनुसार पाठक आसानी से उस भाव को समझ जाता है।
‘कसप’ एक मध्यवर्गीय जीवन की कथा है। मूलतः मध्यवर्गीय जीवन का प्रेम और उसकी विडम्बना को कथाकार ने बखूबी प्रस्तुत किया है। भावनाओं का उतार-चढ़ाव प्रेमी जीवन का अनिवार्य अंग है। ‘कसप’ इसका माध्यम से जीवन्त कर दिया है-
पाँगर के पेड़-तले नायिका नायक को पकड़ लेती है।
‘‘कहाँ जा रहा डी0डी0?’’
नायक धुएँ का एक छल्ला बनाता है।
‘‘खूब रिसा रहा ना मुझसे?’’
नायक धुएँ का और छल्ला बनाता है। वह नायिका की ओर नही देख रहा है। उसकी दृष्टि पाँगर के पŸाों के पार आसमान में कुछ खोज रही है।
‘‘मुझे मार।’’
‘‘क्यों?’’
‘‘रीस निकल जायेगी।’’
मुझे गुस्सा नही है।
‘‘झूठ।’’
‘‘हो भी तो मार-पीट थोड़ी की जाती है।’’
‘‘की जाती है मैं तो इसीलिए हँस रही थी कि तू नही करता डाँटो, झगड़ों, मारो खाली रोना क्या हुआ?’’
‘‘मैं कौन होता हूँ किसी से झगड़ सकने वाला?’’10
नायक-नायिका का उपरोक्त संवाद उनके बीच के संबधों को अभिव्यक्त करने में सर्वथा समर्थ हैं। भावों और संवेदनाओं को मूर्त रूप में हमारे समक्ष ये संवाद प्रस्तुत करते हैं। ‘रीस’ शब्द देशज भाषा का है।
दार्शनिकता भारतीय जीवन पद्धति का अनिवार्य अंग है। प्रेम - संवेदना जीवन के उतार-चढ़ाव का अभिन्न अंग है। भारतीय परम्परा में ‘विरह को प्रेम की जागृत अवस्था है’ की मान्यता प्रचलित है। सीमक्ष्य उपन्यास में भी प्रेमातिरेक के साथ-साथ विरह की अवस्थाओं का अंकन भी देखने को मिलता है। एक लम्बे अन्तराल के पश्चात् अचानक से एक-दूसरे से रूबरू होते हैं तो उनकी मनोदशा देखते ही बनती है। दार्शनिकता और मनोवैज्ञानिकता हमारे नायक-नायिका के कार्य-व्यापारों में दृष्टिगत होती हे। नायक और गुलनार का संवाद जीवन के मानसिक आलोड़न-विलोड़न को हम निम्नलिखित पंक्तियों में देख सकते हैं-
‘‘प्यार लिप्सा और वर्जना के खानों पर जमाने-भर के मोहरों से खेली जाने वाली शतरंज है। अन्नरंगता खेल नही है, उसमें कोई जीत-हार नही है, आरम्भ और अन्त नहीं है। प्यार एक प्रक्रिया है, अन्तरंगता एक अवस्था।’’11
प्रेम एक प्रक्रिया है, जो सतत् चलती रहती है, यह एक प्रतिबद्धता है, जिसे हम मूर्त या अमूर्त रूप से अपने व्यक्तित्व में समाहित किय हुए हैं। समय के प्रवाह में डी0डी0 फिल्म दिग्दर्शक देवीदŸा है और बेबी श्रीमती मैत्रेयी मिश्रा हो जाती है। दोनों एक-दूसरे समक्ष हैं- दिग्दर्शक देवीदŸा और कला संरक्षिका मैत्रेयी आमने सामने हैं। मैत्रेयी, बेबी का ही परिष्कृत संस्करण है यह देख रहा है डी0डी0। कुमाऊँनी के वार्तालाप अब अंग्रेजी में हो रहे हैं- ‘‘मिस्टर देवीदŸा तिवारी आई प्रिज्यूम।’’
प्रत्युŸार में डी0डी0 कहता है- ‘‘एण्ड वुड आई बो टू प्रिजम्यूअ विलीविंग दैट यू आर मिसेज मैत्रेयी मिश्रा, फार्मरली नोन एज बेबी?’’12
भावनात्मक परिष्कार दोनों में उम्र के साथ देखने को मिलता है। अब उम्र का पागलपन एवं अल्हड़पन जा रहा है। एक परिष्कृत दार्शनिकता ने देवीदŸा के व्यक्तित्व को आच्छादित कर लिया है। यह एक सहृदय कथाकार का रचनात्मक कौशल है, जो परिस्थितियों के अनुरूप भाषा एवं भावों को बड़े ही समर्थ रूप से सम्प्रेषित करता हैः-
‘‘पता नही और भी क्या-क्या है जो उसे काट रहा है, गंगोलीहाट में घूमते हुए। एक तो अपना अतीत, दूसरा गंगोली का वर्तमान और तीसरा यह तथ्य कि सक्सेना साहेब के मुकाबले वह गंगोलीहाट के विषय में अज्ञानी हो चला है। इस बीच वह -कुछ भी कहता है, वे गलती निकालते हैं। चैथी चीज जो उसक काट रही है एक जीन सिम्मंसनुमा किशोरी की उपस्थिति।’’13
यह नायक के अन्तः मनोविज्ञान का ही प्रभाव है कि जो स्थितियाँ उसके लिए प्रीतिकर थीं, वह उसे बेचैन करती हंै। नायक उस परिवेश में पहुँचकर विह्वल हो जाता है? और रूदन करता है। एक ऐसा रूदन जो न तो उसके जीवन में कभी देखने को मिला और ना ही इस उपन्यास में नायक अपने परिवेश से बेपरवाह होकर अपने भाव जगत में लीन है- ‘‘डी0 डी0 रो रहा है। अपने अमेरिका प्रवास में वह कभी नहीं रोया। उदासी भगाने की गोलियाँ जरूर खायी। खैर जिस तरह वह रो रहा है, उस तरह तो सच पूछिए कभी नही रोया पहले। बचपन तक में वह बीच-बीच में रूक नहीं रहा है कि कोई आये, मनाये, पूछे क्या बात है, क्या चाहिए? विलक्षण निरन्तरता, एकाग्रता है इस रूदन में’’14
‘कसप’ उपन्यास का अन्त इस रूदन के कारण जानने की चेष्टा में होता है। कथाकार के मन में अनेक प्रश्न-प्रतिप्रश्न आते हंै और जाते हैं और अन्ततः यह सुधी पाठकों के विवेक पर छोड़ देता है। ‘कसप’ के माध्यम ये एक मध्यवर्गीय युवक-युवती के प्रगाढ़ प्रेम को जोशी जी ने प्रस्तुत किया है। मध्यवर्गीय युवक की चिन्ता एक ओर उसका कैरियर है तो दूसरी ओर उसकी आशा और आकांक्षा। नायक का रूदन उन्हीं व्यक्तिगत आकांक्षा का रूदन है।
मनोहर श्याम जोशी उत्तर आधुनिक समय के कथाकार हैं। ‘कसप’ उपन्यास में भाषा के स्तर पर जोशी जी ने जो नवाचार किया है वह जैनेन्द्र, अज्ञेय, रेणु, श्रीलाल शुक्ल जैसे रचनाकारों की परम्परा का विकास है। विवेच्य उपन्यास में भाषा के व्यवहारिक पक्षों को कथावस्तु के अनुरूप प्रस्तुत किया है। भाषिक अधिग्रहण के रूप में जोशी जी ने संस्कृतनिष्ठ भाषा के साथ-साथ, देशज, कुमांऊँनी, अंग्रेजी एवं अरबी-फारसी के शब्दों का प्रयोग यथावश्यक देखने को मिलता है। ‘कसप’ उपन्यास की विशिष्टता के सन्दर्भ में मधुरेश का कथन है- ‘‘कसप’’ में मनोहर श्याम जोशी ने कुमांयू के मध्यवर्गीय समाज को उसके सारे आकर्षण और अन्तर्विरोधों के साथ अंकित किया है।’’15
मध्यवर्गीय समाज के आकर्षण और अन्तर्विरोधो को अंकित करते हुए कथाकार की भाषा की अन्तर्विरोधो का सामंजस्य स्थापित करते हुए आगे बढ़ती है। एक औपन्यासिक भाषा जिसमें अंचल की महक के साथ-साथ लाक्षणिकता, संस्कृत निष्ठता, दार्शनिकता के साथ-साथ भावों एवं परिवेश का मूर्त एवं अमूर्त चित्रण भी देखने को मिलता है।
1. कसप: मनोहर श्याम जोशी, पृष्ठ - 07
2. उपन्यास का पुनर्जन्मः परमानन्द श्रीवास्तव, पृष्ठ - 163
3. कसप: मनोहर श्याम जोशी, पृष्ठ - 25
4. कसप: मनोहर श्याम जोशी, पृष्ठ - 17
5. कसप: मनोहर श्याम जोशी, पृष्ठ - 77
6. कसप: मनोहर श्याम जोशी, पृष्ठ - 77
7. कसप: मनोहर श्याम जोशी, पृष्ठ -21
8. भाषा और समाजः राम विलास शर्मा, पृष्ठ - 407
9. कसप: मनोहर श्याम जोशी, पृष्ठ - 22
10. कसप: मनोहर श्याम जोशी, पृष्ठ - 44
11. कसप: मनोहर श्याम जोशी, पृष्ठ - 161
12. कसप: मनोहर श्याम जोशी, पृष्ठ - 297
13. कसप: मनोहर श्याम जोशी, पृष्ठ - 300
14. कसप: मनोहर श्याम जोशी, पृष्ठ - 308
15. हिन्दी उपन्यास का विकासः मधुरेश, पृष्ठ - 197
सन्दर्भ ग्रन्थः-
1. कसप: मनोहर श्याम जोशी, राजकमल प्रकाशन, 2019
2. हिन्दी उपन्यास का इतिहासः गोपाल राय, राजकमल प्रकाशन, 2005
3. हिन्दी उपन्यास का विकासः मधुरेश, सुमित प्रकाशन, 2001
4. उपन्यास का पुनर्जन्मः परमानन्द श्रीवास्तव, वाणी प्रकाशन, 1995
5. भाषा एवं समाजः राम विलास शर्मा, राजकमल प्रकाशन, 2002
इस शोधालेख से पूरे कसप उपन्यास की कथा यात्रा आपने करा दी गुरूवर। बहुत खूब।
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