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तेरे बूते का नही: प्रीति श्रीवास्तव

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तेरे बूते का नही तू इश्क समझे मेरे दिल में है मैं तो इश्क करूंगी तुमसे  तेरे बूते का नही तू खुशबू पहचाने मेरे दिल मे है बयार से पहचान लूं तूझे तेरे बूते का नही तू नजर मिलाए मेरे दिल में हैं मै अर्थी तक निहारूंगी तूझे तेरे बूते का नही तू याद भी रखे मुझे मेरे दिल में है जन्मों तक पुकारूंगी तूझे तेरे बूते का नही मैं कहीं भी रहूं तूझमे मेरे दिल में है बस तू ही तू रहे मुझमे # बस यूं ही प्रीति  (फोटो फेसबुक गैलरी) अकेले हो या अकेलापन पसंद है तुम्हे भीड़ ना सही  हमें तो साथ लेलो ना बोलेंगे  ना टोकेंगे बस साथ चलेंगे मत कहना  नही डरता मैं रास्तों से अरे रास्ते डरतें हैं  अकेले चलने वालों से माना कि अंधेरों से डरते नही तुम पर जुगनुओं को राह दिखाने तो दो कदमों के नीचे  ना आ जाए कोई  बस इतना साथ निभाने तो दो इक ही राह के मुसाफिर फिर क्यों चले अकेले डर रहे हो तुम  पास साथी ना कोई आवे कहीं हिल ना जाएँ होठ तेरे खुल ना जाए कोई भेद दिल का चुप रह लेना ना मेरे साथी बस साथ मुझको लेले सब हाल मुझे पता है तु बोलना ना मुख से मैं मौन ही सुनुगी तुम मौन ही सुनाना बस साथ मुझको लेले बस साथ मुझको लेले।

फणीश्वर नाथ रेणु कहानियाँ : लोक कला एवं संस्कृति का आख्यान(डॉ. अमरेन्द्र कुमार श्रीवास्तव & डॉ. दीपशिखा श्रीवास्तव)

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  फणीश्वर नाथ रेणु एक ऐसे रचनाकार है , जिन्होंने अँचल के यथार्थ को समग्रता में अपने साहित्य में उकेर कर लोक कलाओं और लोक रंग , गंध को सहेजने का कार्य किया है। फनीश्वर नाथ रेणु का समग्र कथा साहित्य लोक रंग एवं लोक चेतना से भरा पड़ा है। ’भीत्ति चित्र की मयूरी’ रेणु की अंतिम कहानी है , जिसमें रेणु की लोक-सम्पृक्ति और लोक - चेतना के प्रति चिन्ता देखने को मिलती है। फणीश्वर नाथ रेणु युगबोध से परिचालित और प्रेरित ऐसे कथाकार थे , जिनकी दृष्टि भारतीय समाज के यथार्थपरक संश्लिष्ट बिम्बों पर केंद्रित थी। रेणु की लोक संप्रति और लोक चेतना यह चिन्ताकुलता भी सामने ला रही कि बदल रहे देश और समाज में जहाँ पूँजीवादी मानसिकता के कारण ऐसी परिस्थितियां निर्मित हो रही थी , जिसमें भारतीय लोक संस्कृति के वास्तविक सौन्दर्य को बचाये रखने का संकट उत्पन्न हो रहा था।“ रेणु को भारतीय लोक जीवन , एवं लोक संस्कृति एवं लोक भाषाओं से विशेष लगाव था। इसी लगाव और कला के प्रति अपनी संवेदनशीलता के कारण रेणु में लोक संस्कृति के संरक्षण के लिए गहरी एवं गम्भीर चित्ता देखने को मिलती है। फणीश्वर नाथ रेणु ने अंचल के रुपरंग एवं गं

कर्म, आस्था, एवं आध्यात्मिकता की अद्भूत गाथाः प्रहलाद एक महाकाव्य (डा. अमरेन्द्र कुमार श्रीवास्तव & डा. तरु मिश्रा)

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भारतीय सामाजिक जीवन में परम्परा से चली आ रही मान्यताओ का विशेष स्थान है। परम्परा और आधुनिकता का जितना सुन्दर संयोजन भारत में देखने को मिलता है उतना सुन्दर संयोजन अन्यत्र दुर्लभ है। सामाजिक जीवन में परम्परा के निर्वहन के साथ-साथ हमारे सांवकृतिक एवं साहित्यिक जीवन में भी हमारी परम्परागत मान्यताओं को स्थान मिलता है। प्राचीन काल से लेकर आज तक हमारे यहाँ जितना भी साहित्य रथा गया है, उनकी प्रेरणा कहीं न कहीं  वेदो , पुराणों और रामायण एवं महाभारत से ही ली गयी है। ’प्रहलाद एक महाकाव्य’ शीर्षक भी विष्णु पुराण की एक कथा को आधार बनाकर प्रस्तुत किया गया है। देश को नई और दिशा की ओर ले जाने की दृष्टि पुराणों और पौराणिक ग्रन्थों का विशेष महत्व है। इसे रेखांकित करते हुए सच्चिदानन्द हीरानन्द वाताययन अज्ञेय के अपने निबन्ध ’पुराण और संस्कृति’ में लिखा है कि - “बिना पुराणों के अध्ययन के किसी भी देश के जीवन की सांस्कृतिक भित्ति तक नहीं पहुंचा जा सकता , और इसलिए उस जीवन के प्रति अपना दायित्व भी नहीं निभाया जा सकता। ग्रीक दार्शनिकों ने ग्रीक पुराणों का नया मूल्यांकन किया था तो वे प्रचलित धार्मिक रूढ़ियों की न

Hindutva is way of living more than a religion

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 (Hindutva is way of living more than a religion) भारतीय चिन्तन परम्परा अत्यंत प्राचीन और आध्यात्मिक जीवन दृष्टि से सम्पन्न एक जीवन पद्धति है, जिसमें समय- समय पर परिवर्धन एवं मार्जन होता रहा है. आज के प्राकृतिक विज्ञान के तर्क कसौटी हमारी बहुत सी आध्यात्मिक परम्परा को पूर्णतः वैज्ञानिक स्वीकार किया गया है. आज वैश्विक स्तर पर अपने- अपने धर्म को लेकर लोगों में मान्यताएँ प्रगाढ़ होती जा रहीं हैं, ऐसे समय में हिन्दू धर्म और भारतीय जीवन दृष्टि की मान्यता और विश्वास पर बात करेंगे.  सबसे पहले हम बात करेंगे भारत में प्रचलित अभिवादन पद्धति का - हमारे यहाँ जब लोग मिलते हैं तो प्रणाम, नमस्कार, नमस्ते, राम- राम, राधे - राधे आदि जैसै शब्दों से अभिनंदन करते हैं. ध्वनि के विश्लेषण के क्रम में इन शब्दों का अध्ययन करें तो यह स्पष्ट होता है कि ये ध्वनि हमारे आस- पास सकारात्मक ऊर्जा की सृष्टि करते हैं . "मेरे भीतर की रोशनी, आपके अन्दर की रोशनी का सत्कार करती है - नमस्ते".(My inner light welcomes your inner light - Namste. )  It is the power of words.   हिन्दू अपने आप में अनेक जीवन पद्धतियों का

रेत उपन्यास में आदिवासी स्त्री संघर्ष: डॉ. विनोद कुमार बी.एम.

  रेत उपन्यास में आदिवासी स्त्री संघर्ष                                                    डॉ. विनोद कुमार बी.एम.                                                                    सहायक प्राध्यापक हिन्दी विभाग , आल्वास कॉलेज , मूडुबिदिरे दक्षिण कन्नड़ कर्नाटक-574227 Vinodmadhav812@gmail.com शोध सारांश-             यह उपन्यास कंजर आदिवासी समाज की महिलाओं की त्रासदी का अनुठा नमुना है। उपन्यास की पृष्ठभूमि हरियाणा और राजस्थान का सीमावर्ती इलाका है। यही पर गाजुकी नदी के किनारे गाजुकी कंजरों की बस्ती है। इसी बस्ती में है कमला सदन इसी घर में खिलावड़ियों का राज है खिलावड़ी अर्थात धंधा करने वाली कुँवारी लड़कियाँ। इस समाज में खुली मान्यता है कुंवारी लड़कियों को वेश्यबृत्ति करने की। इस समाज का पुरूष कोई काम-धंधा नहीं करता है। इस आदिवासी समाज के उपर अपराधी होने का कलंक लगा हुआ है। कंजर बदनाम कौम के रूप में देखी जाती है। इस आदिवासी समाज का लाभ सब उठाना चाहते हैं लेकिन इनके साथ कोई सभ्य समाज का आदमी जुड़ाव रखना नहीं चाहता है। बीज शब्द- समानता, अधिकार, शोषण, सभ्यता-संस्कृति, हाँश